
मजनू
पहली कहानी का निर्देशन शशांत खेतान ने किया है। लिपाक्षी (फातिमा सना शेख) और बबलू (जयदीप अहलावत) एक नविवाहित जोड़ा है, जिनकी शादी ‘गठबंधन की शादी’ है। बबलू कमरे में घुसते ही कहता है- “हम किसी और से प्यार करते थे, तो आपसे कभी प्यार नहीं पाएंगे। सॉरी नहीं कहेंगे क्योंकि इस शादी से दोनों ही परिवार का फायदा हुआ है।” लिपाक्षी पल भर को ठिठकती है और फिर खीझ के साथ कहती है- “इस देश के सभी मर्द ढ़ोंगी क्यों हैं?” पहले दृश्य से ही निर्देशक यह स्थापित कर देते हैं कि यह शादी का रिश्ता सिर्फ समाज के लिए, यहां लेश मात्र भावनाएं नहीं हैं।
लेकिन लिपाक्षी कोई डरी- सहमी या जबरदस्ती रिश्ते में बंधे रहने वाली लड़की नहीं है। वह अपने जीवन में एक मर्द का साथ चाहती है, जो साथ उसे मिलता है राज (अरमान रहलान) से, जो कि बबलू के ड्राइवर का बेटा है। बबलू के नाक के नीचे राज और लिपाक्षी की प्रेम कहानी पनपने लगती है। अब उनकी प्रेम कहानी का अंजाम क्या होता है और इस बीच बबलू की जिंदगी का सबसे अहम पहलू कैसे खुलकर आता है! यह देखना दिलचस्प है।

उलझे भावनाओं की कहानी
इस फिल्म की कहानी शशांक खेतान ने ही लिखी है, जो कि लगभग 30 मिनट की है। टूटे रिश्तों और उलझे भावनाओं की यह कहानी औसत है या कह सकते हैं कि नयापन नहीं है। किरदार मजबूत हैं, लेकिन अभिनय के मामले में सिर्फ जयदीप अहलावत आकर्षित करते हैं। फातिमा की कोशिश अच्छी है, लेकिन वह हाव भाव में वो कामुकता नहीं ला पाती हैं, जिसकी कहानी को दरकार है। पुष्कर सिंह की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है और कहानी को थोड़ा उठाती है।

खिलौना
चारों कहानियों में सबसे मजबूत कहानी, जो आपको सरप्राइज करने में पूरी तरह से सफल होती है। फिल्म के निर्देशक हैं राज मेहता। कहानी समाज को दो वर्गों में बांटती है- एक हैं कोठीवाले.. और दूसरे होते हैं कटियावाले। एक दृश्य में मीनल (नुसरत भरूचा) शिकायती भाव के साथ सुशील (अभिषेक बनर्जी) से कहती है- “ये कोठी वाले किसी के सगे नहीं होते हैं।”
सोसाइटी के बाहर एक छोटी दुकान लगाकर इस्त्री का काम करता है सुशील। जबकि मीनल इन्हीं में से एक कोठी में काम करती है और सोसाइटी के बिजली के तारों पर कटिया डालकर अपने घर में बिजली का इंतजाम रखती है। बीच में कुछ अनहोनी घटनाएं घटती हैं, जब मीनल, बिन्नी और सुशील तीनों इस ‘कोठीवाले’ को सजा देना चाहते हैं। कब, कहां और कैसी सज़ा? यह देखकर आप कांप जाएंगे।

उम्दा निर्देशन और अभिनय
निर्देशक राज मेहता ने इस फिल्म में इतनी तेजी रखी है कि यह मिनट भर भी बोर नहीं होने देती है। फिल्म की पटकथा बेहद कसी हुई है, जिसे लिखा है सुमित सक्सेना ने। अभिषेक बनर्जी, इनायत वर्मा और नुसरत तीनों ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है। नुसरत के किरदार में एक बेबसी, तेजी और चालाकी है, जो अभिनेत्री ने बढ़िया दिखाया है। जिश्नु भट्टाचार्यजी की सिनेमेटोग्राफी तारीफ के काबिल है।

गीली पुच्ची
नीरज घेवान द्वारा निर्देशित इस कहानी में एक साथ कई विषयों को सामने लाने की कोशिश की गई है और निर्देशक कुछ हद तक सफल भी रहे हैं। कोंकणा सेन शर्मा और अदिति राव हैदरी उम्दा कलाकार हैं और दोनों का साथ आना कहानी को मजबूती और नयापन देता है।
भारती मंडल (कोंकणा) फैक्टरी में बतौर मशीन-मैन काम करती है, जहां लंबे समय से डाटा ऑपरेटर का पद पाने की कोशिश कर रही होती है। अपनी योग्यता पर उसे पूरा भरोसा है। उसे तारीफ तो मिलती है, लेकिन पद नहीं.. क्योंकि वह ‘पिछड़ी जाति’ से आती है। फैक्टरी का मालिक उसकी जगह एक नई लड़की को ज्वॉइन कराता है, जो है प्रिया शर्मा (अदिति राव हैदरी)। दोनों एक दूसरे से विपरीत महिलाए हैं। शुरुआती तकरार के बाद दोनों के बीच दोस्ती होती है, और फिर बात दोस्ती से आगे बढ़ती है। लेकिन प्रिया शादी शुदा है और यह दिल से यह मानने को तैयार नहीं कि वह समलैंगिक है। वह इसे ‘बीमारी’ कहती है। वह सामाजिक नियमों और सोच से बंधी है। जबकि भारती हर दिन असहजताओं से गुजरती है। वह भी टूटती है, लेकिन वह मजबूत है।

कई विषयों को छूते हैं निर्देशक
फिल्म की पटकथा नीरज घेवान ने लिखी है, जिसके जरीए वो जातिवाद और समलैंगिकता जैसे विषयों को छूते हैं। फिल्म का लेखन काफी सधा हुआ है, लेकिन आधे घंटे में की कहानी में जो तेजी आप चाहते हैं, वह यहां कहीं छूटती है। यहां किरदारों में एक कड़वाहट है, लेकिन वह चुभती नहीं है। सभी कलाकारों ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। खासकर कोंकणा सेन शर्मा दिल जीत लेती हैं। सिद्धार्थ दिवान की सिनेमेटोग्राफी खूबसूरत है।

अनकही
चौथी और आखिरी फिल्म है निर्देशक कायोज़ ईरानी की। कहने को सबसे सिंपल लेकिन सबसे गहरी। नताशा (शेफाली शाह) और रोहन (तोता रॉय चौधरी) की बेटी है समायरा, जिसके सुनने की क्षमता धीरे धीरे जा रही है। नताशा उससे बातचीत करने के लिए साइन लैंग्वेज सिखती है, लेकिन अपने काम में व्यस्त रोहन की बेटी से दूरी बढ़ती ही जाती है। सिर्फ बेटी से ही नहीं, बल्कि नताशा और रोहन का रिश्ता भी बस रेत की महल की भांति टिका हुआ है, जो कभी भी टूट सकता है। ऐसे में नताशा की मुलाकात एक फोटोग्राफर (मानव कौल) से होती है, जो बोल और सुन नहीं सकता। दोनों साइन लैंग्वेज में बात करते हैं। पहली ही मुलाकात में दोनों के बीच नजदीकियां बढ़ती हैं। धीरे धीरे दोनों एक दूसरे के साथ काफी समय गुजारते हैं। लेकिन क्या अपने बने बनाए रिश्तों और परिवार से दूर जाने की हिम्मत नताशा कर पाएगी?
मानव कौल और शेफाली शाह दोनों अपने किरदारों में खूब जंचे हैं। साथ में कोई संवाद ना होते हुए भी उनकी बातें दिल तक पहुंचती हैं। उनके चेहरे के हर भाव शानदार हैं। कायोज़ ईयानी रिश्तों के ऊहापोह को दिखाने में बिल्कुल सफल रहे हैं। उज़मा खान द्वारा लिखित कसी हुई पटकथा इस फिल्म को मजबूत बनाती है।

क्या अच्छा क्या बुरा
फिल्म के सबसे मजबूत पक्षों में शामिल है निर्देशन और किरदार। साफ तौर पर चारों कहानियों में, ‘मजनू’ सबसे कमजोर निकलती है, जो कि सबसे पहली फिल्म है। उसके बाद तीन फिल्मों का सफर किसी फास्ट ट्रेन की तरह गुजरता है। एक के बाद एक दिलचस्प किरदार आपके सामने आते जाते हैं, दिल जीतते हैं, कहानियां आपको चौंकाती हैं। कोंकणा सेन शर्मा- अदिति राव हैदरी और शेफाली शाह- मानव कौल की जोड़ी बेहतरीन लगी है।

देखें या ना देखें
रिश्तों के ऊहापोह पर बनी ‘अजीब दास्तान’ एक अच्छी एंथोलॉजी है। यदि आप ऐसे विषय पसंद करते हैं तो ये चार फिल्मों का संकलन जरूर देख सकते हैं। फिल्मीबीट की ओर से ‘अजीब दास्तान’ को 3.5 स्टार।