
फिल्म का प्लॉट
एके Vs एके का प्लॉट सबने इसके ट्रेलर में ही देखा है। एक पागल डायरेक्टर और एक धूमिल होता एक्टर। एक्टर को चाहिए एक फिल्म और डायरेक्टर को एक मौका। अनुराग कश्यप के दिमाग में आता है एक आईडिया – रियलिस्टिक फिल्म का। इसके लिए वो सोनम कपूर को किडनैप कर लेते हैं और फिर कहानी में सब कुछ रियल होने का इंतज़ार करते हैं। एक बाप कैसे 12 घंटों में अपनी बेटी को ढूंढता है इसकी रियल कहानी।

किरदार
फिल्म में अनुराग कश्यप और अनिल कपूर एक अलग यूनिवर्स बनाते हैं। और इस यूनिवर्स का छोटा सा हिस्सा बनते हैं हर्षवर्धन कपूर। जो पूरी कोशिश करते हैं कि किसी तरह, अनुराग कश्यप जैसे डायरेक्टर को इंप्रेस कर पाएं। इसके लिए हर्षवर्धन, अनिल कपूर और अनुराग कश्यप की फिल्म का हिस्सा भी बनने की कोशिश करते हैं और गिरते पड़ते ही सही लेकिन कहीं कहीं सफल होते दिखते हैं।

सपोर्टिंग कास्ट
फिल्म में हर्षवर्धन कपूर के अलावा दो और सपोर्टिंग किरदार हैं। यूं कह लीजिए कि कैमियो। एक बोनी कपूर, दूसरा सोनम कपूर। हालांकि दोनों को ही स्क्रीन पर उनके ही किरदार में देखना थोड़ा दिलचस्प हो सकता था। लेकिन विक्रमादित्य मोटवाने ने इस फिल्म को बॉलीवुड के अंदर के गॉसिप से उठाकर सीधा एक थ्रिलर में बहुत ही होशियारी से फेंका है।

निर्देशन
फिल्म के दोनों मुख्य किरदार – अनुराग कश्यप और अनिल कपूर फिल्म में अपना ही किरदार निभा रहे हैं। लेकिन विक्रमादित्य मोटवाने यहीं पर आपको पूरी तरह उलझा देते हैं। क्या ये दोनों सच में ऐसे हैं, क्या ये सच में इतने हाईपर हैं, क्या ये सच की फिल्म है, ये फिल्म के अंदर फिल्म के किरदार है। आप इन सारे सवालों के बीच उलझते हैं और इन्हें सुलझाते हुए बड़ी ही आसानी से अनुराग कश्यप और अनिल कपूर के किरदारों को सच मानने लग जाते हैं। और इसके लिए विक्रमादित्य मोटवाने प्रशंसा के पात्र हैं।

अनिल कपूर हैं स्टार
फिल्म में अनिल कपूर स्टार हैं और वो ये बात हर सीन के साथ साबित करते हैं। पहले सीन से लेकर आखिरी सीन तक अनिल कपूर इस फिल्म को अपने कंधों पर उठाने की कोशिश करते दिखते हैं। कहीं – कहीं वो सफल होते हैं तो कहीं बुरी तरह से विफल हो जाते हैं। लेकिन फिर भी किसी तरह वो खींचते हुए इस फिल्म को क्लाईमैक्स तक लेकर आ ही जाते हैं।

निराश करते हैं अनुराग कश्यप
अनुराग कश्यप को दर्शकों ने इससे पहले भी फिल्मों में अभिनय करते देखा है लेकिन ये फिल्म उनका सबसे कमज़ोर काम है। अनुराग कश्यप इस फिल्म को अनिल कपूर के साथ मज़बूती से उठाने के प्रयास करने में इतनी ज़ोर से गिरते हैं कि दोबारा उठ ही नहीं पाते हैं। पूरी फिल्म में असली दिखने के चक्कर में अनुराग कश्यप इस फिल्म के सबसे नकली पात्र बनकर सामने आते हैं।

तकनीकी पक्ष
फिल्म एक बेहतरीन एक्सपेरिमेंट है। लेकिन हर एक्सपेरिमेंट की मूलभूत ज़रूरत होती है सामग्री। और यहां इस फिल्म की मूलभूत ज़रूरत थी एक कसी हुई कहानी। और ये इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी। फिल्म का आईडिया बेहतरीन है लेकिन इस आईडिया को सफल बनाने वाली कहानी अविनाश संपत के पास नहीं थी। उनका लचर स्क्रीनप्ले, फिल्म को ढेर कर देता है।

क्या है अच्छा
कुल मिलाकर देखा जाए तो एके Vs एके एक अच्छा और नया एक्सपेरिमेंट जिसे 1.50 की फिल्म में बांधने की कोशिश की गई है। फिल्म के डायलॉग्स आपका ध्यान खींचते हैं। खासतौर से वो जहां अनुराग कश्यप और अनिल कपूर एक दूसरे की भर भर कर बेइज़्जती करते हैं। फिल्म क्लाईमैक्स पर आकर एक बार फिर बुझने से पहले ज़ोर से फड़फड़ाते दीए की लौ की तरह तेज़ चमकती भी है। और दर्शक इसकी कमियां ढूंढने की कोशिश नहीं करेंगे, फिल्म इतनी दिलचस्पी बनाए रखती है।

कहां करती है निराश
फिल्म की सबसे बड़ी कमी है इसके वादे। ये फिल्म एक रियलिटी के करीब फिल्म होने का वादा करती है लेकिन उसे निभा नहीं पाती है। फिल्म में आंसू असली, खून असली, दिक्कत असली, सारे वादे वहीं ढेर हो जाते हैं जब आप अनिल कपूर और अनुराग कश्यप को अभिनेता के तौर पर देखते हैं। वहीं दूसरी तरफ, फिल्म की कहानी इतनी कमज़ोर है कि आप रियलिटी के ताने बाने में बुनी गई फिल्म को रफू करने की कोशिश भी नहीं कर सकते।

देखें या ना देखें
एके Vs एके बहुत भारी उम्मीदों के साथ देखने वाली फिल्म नहीं है। ना ही इसमें उड़ान वाले विक्रमादित्य मोटवाने की कलाकारी है, ना ही वसेपुर वाले अनुराग कश्यप की समझदारी। ना ही इस फिल्म में नायक वाले अनिल कपूर हैं। लेकिन फिर भी आपको ये फिल्म देखनी चाहिए। क्योंकि कुछ फिल्में अलग होती हैं, इतना ही कारण काफी है।