
फिल्म की कहानी
दुर्गामती में हर वह मसाला डाला गया है, जो एक दमदार हॉरर फिल्म में होनी चाहिए। फिल्म शुरु होती है जल संसाधन मंत्री ईश्वर प्रसाद (अरशद वारसी) से, जहां वो लोगों से वादा करते हैं कि यदि मंदिर की मूर्तियां चुराने वालों को 15 दिनों में नहीं पकड़ा गया तो वो अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे। ईश्वर प्रसाद को उनकी ईमानदारी की वजह से जनता भगवान मानती है। दूसरी तरफ वह सीबीआई के रडार पर भी हैं। सीबीआई संयुक्त आयुक्त सताक्षी गांगुली (माही गिल) और एसीपी अभय सिंह (जीशु सेनगुप्ता) साथ मिलकर ईश्वर प्रसाद के भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करना चाहते हैं।

फिल्म की कहानी
इस प्लान के तहत सताक्षी गांगुली और एसीपी अभय सिंह जेल में बंद ईश्वर प्रसाद की पूर्व पर्सनल सेक्रेटरी आईएएस चंचल चौहान (भूमि पेडनेकर) को पूछताछ के लिए बाहर निकालते हैं। चंचल अपने मंगेतर शक्ति (करण कपाड़िया) के मर्डर के जुर्म में जेल में बंद रहती है। बहरहाल, लोगों की नजरों से दूर उससे पूछताछ के लिए सीबीआई उसे दुर्गामती महल दे जाती है। लोग कहते हैं कि महल में रानी दुर्गामती की आत्मा वास करती है। लेकिन सीबीआई चंचल को वहां कुछ दिनों के लिए रखती है और पूछताछ करती है। यहां से चीजें बदलतीं हैं। रात होते ही चंचल पर रानी दुर्गामती की आत्मा चढ़ती है और वह पूरी तरह से बदल जाती है। लेकिन कौन है रानी दुर्गामती और क्या है उसकी कहानी? क्या सच में वहां आत्मा का वास है या चंचल की चाल? ये जवाब सीधे फिल्म के क्लाईमैक्स में सामने आते हैं।

निर्देशन
दुर्गामती तेलुगु फिल्म की हिंदी रीमेक है, लेकिन अभी भी इसमें साउथ की छाप है जो हिंदी दर्शकों को निराश कर सकती है। निर्देशक जी.अशोक ने फिल्म को पूरी तरह से सीन दर सीन एक भाषा से दूसरे भाषा में उतार दिया है। लेकिन यह जानना अति महत्वपूर्ण है कि हिंदी फिल्म के दर्शकों का स्वाद काफी अलग है।रानी दुर्गामती बनी भूमि पेडनेकर के डायलॉग के पीछे दिया गया बैकग्राउंड स्कोर और echo उबा देने वाला है। फिल्म की कहानी दिलचस्प है, लेकिन संवाद और निर्देशन बिल्कुल लचर। ज्यादातर दृश्यों में फिल्म के संवाद उपदेश लगते हैं। जाहिर है हिंदी दर्शकों को इससे बांधना मुश्किल है।
नारीवाद या भ्रष्टाचार पर कहानी कहनी चाहिए, लेकिन कहने का तरीका प्रभावी होना चाहिए।

अभिनय
भूमि पेडनेकरभूमि पेडनेकर एक सशक्त अभिनेत्री हैं, जो हर फिल्म के साथ दर्शकों की तारीफ बटोरती हैं। लेकिन फिर यहां क्या कमी रही? शायद सही निर्देशन की। कुछ दृश्यों में उन्होंने इंप्रेस किया है, लेकिन रानी दुर्गामती बनकर वह बेदम नजर आईं। वहीं माही गिल के हिस्से दो- चार डायलॉग्स के अलावा कुछ खास आया ही नहीं है.. वह भी बंगाली- हिंदी मिलाकर दिया गया संवाद कुछ अजीब सा ही बन पड़ा है। जीशु सेनगुप्ता जब जब स्क्रीन पर आए, प्रभावी लगे। करण कपाड़िया का किरदार छोटा और फ्लैट सा था।

तकनीकि पक्ष
कुलदीप ममालिया की सिनेमेटोग्राफी कहानी को प्रभावी बनाती है। खासकर दुर्गामती महल के माध्यम से दर्शकों को डराने में कुलदीप सफल रहे हैं। फिल्म का आर्ट डाइरेक्शन तारीफ के काबिल है। उन्निकृष्णण एडिटिंग में अपने हाथ और कस सकते थे। ढ़ाई घंटे की यह फिल्म काफी खिंची हुई लगती है। राजनीति और भ्रष्टाचार से जुड़े उपदेश वाले दृश्य फिल्म को बहुत लंबा करते हैं और दर्शकों को बोर भी।

संगीत
फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर औसत है, जिसे दिया है Jakes Bejoy ने। कहना गलत नहीं होगा कि एक हॉरर फिल्म के लिए यह महत्वपूर्ण पक्ष होता है। वहीं, फिल्म का संगीत कंपोज किया है तनिष्क बागची, नमन अधिकारी, अभिनव शर्मा और मालिनी अवस्थी ने। फिल्म में दो ही गाने हैं जो बैकग्राउंड में चलते हैं और असर छोड़ते हैं।

क्या अच्छा क्या बुरा
फिल्म की रूपरेखा जैसी है, यह एक जबरदस्त हॉरर फिल्म की श्रेणी जा सकती थी। लेकिन कमजोर निर्देशन और अभिनय की वजह से फिल्म औसत बनकर रह जाती है। भूमि पेडनेकर एक दमदार अभिनेत्री हैं, कुछ दृश्यों में वो खूब जंची हैं, लेकिन जहां लंबे संवाद और दुर्गामती की खास अदायगी दिखाने की बारी आई तो वो असरदार नहीं लगीं। खासकर फिल्म के क्लाईमैक्स को प्रभावी बनाने में निर्देशक मात खा जाते हैं।

देंखे या ना देंखे
यदि आप हॉरर- संस्पेंस फिल्में देखना पसंद करते हैं, तो एक बार दुर्गामती देखा जा सकती है। फिल्म की कहानी कई दिलचस्प मोड़ लेती है, लेकिन अंत में जाकर बिल्कुल बिखर जाती है। ढ़ाई घंटे की यह फिल्म हिस्सों में इंटरटेन करती है।