
कहानी
लखनऊ में बसे ‘गिरी परिवार’ के बेटे आस्तिक की अचानक मौत हो जाती है। दूर दूर से रिश्तेदार आ रहे हैं, रोते हैं, हाल चाल पूछते हैं। गप्पें हांकते हैं। जायदाद की बात करते हैं। इन सबके बीच में है संध्या, आस्तिक की पत्नी। संध्या अपने कमरे में अकेले पड़ी है और फेसबुक देखती रहती है। चुपके से चिप्स मंगवाकर खाती है। उसे पति के जाने पर ना रोना आ रहा है और ना ही इस बात का अफसोस है। आस्तिक की खबर सुनकर संध्या की दोस्त नाज़िया उसके पास आई है। ना सिर्फ नाज़िया बल्कि शोक में आए संध्या के माता- पिता भी उसके बर्ताव से हैरान-परेशान हैं। इस बीच संध्या को इंश्योरेंस के 50 लाख मिलते हैं जिसमें आस्तिक ने सिर्फ उसे ही नॉमिनी बनाया था। इस 50 लाख के आते ही रिश्तों में काफी बदलाव देखने को मिलता है।

कहानी
कुछ वक्त गुजरने के बाद, संध्या अपनी दोस्त को बताती है कि आस्तिक का एक्सट्रा मैरिटल अफेयर था। संध्या ने महसूस किया कि वह कुछ बातों के लिए आस्तिक को माफ नहीं कर पाई है। सिर्फ आस्तिक ही नहीं, धीरे धीरे संध्या का गुस्सा अपनी मां की तरफ भी दिखता है, जिनके लिए हमेशा बेटी की शादी ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी। उसका गुस्सा परिवार के उन लोगों के लिए भी दिखता है, जो अगले कमरे में बैठे उसकी दूसरी शादी की चर्चा करते हैं। लेकिन आस्तिक की गर्लफ्रैंड (सयानी गुप्ता) से संध्या की मुलाकात उसके लिए एक टर्निंग प्वाइंट की तरह होता है। वह कहती है, “जैसे इन 13 दिनों में आस्तिक को नया शरीर मिला, हमें भी इन्हीं 13 दिनों में एक नई जिंदगी मिली..”
आखिर में संध्या अपनी जिंदगी के लिए क्या फैसला लेती है, वह आस्तिक को माफ कर आगे बढ़ पाती है या नहीं, इसी के इर्द गिर्द कहानी है।

निर्देशन
कहने को ‘पगलैट’ एक परिवार की कहानी है। लेकिन निर्देशक उमेश बिष्ट ने इससे पूरे समाज को एक संदेश देने की कोशिश की है। फिल्म के एक दृश्य में घर के बड़े रघुबीर यादव कहते हैं- ‘बहू की दूसरी शादी करा देनी चाहिए। हम लोग काफी ओपन माइंड लोग हैं..’ लेकिन साथ ही घर में आई मुस्लिम लड़की के लिए अलग से कप रखना, अलग से खाना बनवाना उनके ‘ओपन माइंड’ पाखंड को सामने लाता है। एक दृश्य में सबसे छोटे भाई की बेटी जब सबके सामने पीरियड्स की बातें करती है, तो मां उसे तुरंत चुप कराने लगती है। एक अन्य सीन में संध्या की मां उसकी नजर उतारती है, ताकि कोई उसे ससुराल से बाहर ना निकाल पाए। फिल्म का हर दृश्य एक मैसेज की तरह है। पटकथा भी उमेश बिष्ट ने लिखा है और कुछ संवाद काफी प्रभावी बन पड़े हैं, जैसे कि- ‘अगर हम अपने फैसले खुद नहीं लेंगे ना, तो दूसरे ले लेंगे.. फिर चाहे वो हमें पसंद हो या ना हो..’

तकनीकि पक्ष
मयूर शर्मा द्वारा किया गया प्रोडक्शन डिजाइन कहानी को एक परफेफ्ट फील देता है। वहीं, प्रेरणा सहगल की कसी हुई एडिटिंग इसे दिलचस्प बनाती है। फिल्म को दो घंटे के अंदर समेटना एक सही कदम रहा है। रफी महमूद की सिनेमेटोग्राफी काफी प्रभावी है। भरे पूरे परिवार वाला पुस्तैनी मकान ‘शांति कुंज’ हो या शहर की तंग गलियां उन्होंने अपने कैमरे से हर दृश्य को जुबान दी है।

संगीत
इस फिल्म के साथ अरिजीत सिंह पहली बार बतौर म्यूजिक कंपोजर सामने आए हैं। गानों के बोल लिखे हैं नीलेश मिश्रा और रफ्तार ने। अच्छी बात है कि फिल्म में जो भी गाने हैं, वो कहानी को आगे बढ़ाती है। हिमानी कपूर की आवाज़ में ‘थोड़े कम अजनबी’ कानों को सुकून देती है। लेकिन फिल्म के गाने लंबे समय तक ज़हन में जगह नहीं बना पाते हैं।

क्या अच्छा, क्या बुरा
उमेश बिष्ट का निर्देशन, प्रेरणा सहगल की एडिटिंग और सभी कलाकारों का सहज अभिनय फिल्म के मजबूत पक्ष हैं। लेकिन ‘पगलैट’ हैरान या परेशान नहीं करती है, और यही इसकी एक कमजोर पक्ष है। यहां कहानी में कोई बड़ा मोड़ नहीं है, ना ही किसी किरदार के ग्राफ में कोई बदलाव। फिल्म की शुरुआत से अंत तक यह एक ही लय में चलती है। शायद इसीलिए फिल्म लंबे समय तक अपना प्रभाव नहीं रख पाती है।

देंखे या ना देंखे
दो घंटे के अंदर सिमटी ‘पगलैट’ जिस हल्के फुल्के अंदाज में गंभीर बात बोल जाती है, वह देखने लायक है। शानदार कलाकारों की टोली और सीधी सपाट कहानी दिल जीतती है। फिल्मीबीट की ओर से फिल्म को 3.5 स्टार।