हर युग में स्त्री की समान स्थिति पर बनी है आनुम पेन्नुम की तीनों कहानियां

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Aanum Pennum Review: मलयालम फिल्मों में हमेशा कोई न कोई नया एक्सपेरिमेंट होते रहता है. न सिर्फ कहानी के स्तर पर बल्कि कहानी कहने के अंदाज़ पर भी. एन्थोलॉजी यानि एक फिल्म में एक ही थीम पर 3 या अधिक छोटी फिल्मों का समावेश. पिछले कुछ सालों में ये ट्रेंड वापस आया है, बॉम्बे टॉकीज़, लस्ट स्टोरीज, घोस्ट स्टोरीज, या पावा काढीगल जैसी फिल्मों ने अब सिनेमा हॉल के बजाये ओटीटी का रुख किया और काफी सफल हुई. इस कड़ी में मलयालम भाषा की नयी प्रस्तुति है आनुम पेन्नुम (स्त्री और पुरुष). इस फिल्म में एक ऐसी थीम है जिसकी सब बातें करते हैं लेकिन उस पर काम कुछ नहीं हो पाता. हर युग में स्त्री की स्थिति पुरुषों की नज़र में वैसे की वैसी ही रहती है. वैसे मलयालम भाषा में 1967 में ही चित्रमेला नाम ही एक एन्थोलॉजी बन चुकी थी.

आनुम पेन्नुम देखते समय केरल के रंग और केरल की हरियाली नजर आती है, वहां के मिटटी के घर, नारियल के पेड़, नारियल को दराती पर काटने की तस्वीर, सिलबट्टे पर चटनी या दोसा के चावल पीसना जैसे कई दृश्य मन में बस जाते हैं. पहली कहानी “सावित्री” को लिखा है संतोष ऐचिकन्नन ने और निर्देशित किया है जय के. द्वारा. एक सुपर नेचुरल थ्रिलर (एज़रा) बनाने वाले इस निर्देशक से इस संवेदनशील फिल्म की उम्मीद नहीं थी. कहानी ब्रिटिश राज के बाद की है जब केरल में कम्युनिस्ट नेताओं ने विद्रोह की राजनीती करना तेज़ कर दिया था और स्थानीय पुलिस उनके पीछे पड़ी हुई थी. फिल्म में कोचु पारु (संयुक्ता मेनन) एक कॉमरेड बनी हैं जो पुलिस से भाग कर एक व्यापारी (जोजू जॉर्ज) के घर में नौकरानी का काम करने लगती है. पुलिस की मदद करने वाला वो व्यापारी कोचु के साथ जबरदस्ती करना चाहता है. कहानी छोटी सी है लेकिन इसको फिल्माने में एक आराम की फीलिंग आती है और साथ ही जिस तरीके से कम्युनिस्टों को दिखाया गया है वो इसे बोझिल होने से रोक लेता है. कथकली परफॉरमेंस में कीचक वध की कहानी के साथ कोचु पारु के सीनियर कॉमरेड द्वारा व्यापारी को सबक सिखाने के सीन साथ चलते हैं और कहानी को सही अंजाम तक पहुंचते हैं. फिल्म अच्छी लगती है.

दूसरी कहानी है रचियम्मा (पार्वती तिरुवोतु) जो एक दूध बेचने वाली बनी हैं जिसको चाय के बागान के मैनेजर से प्यार हो जाता है. फिल्म की कहानी प्रसिद्ध लेखक उरूब के 1969 में लिखे एक छोटे उपन्यास पर आधारित है. निर्देशक वेणु एक बहुत ही वरिष्ठ सिनेमेटोग्राफर हैं और कभी कभी फिल्में निर्देशित करते हैं. अब तक 4 राष्ट्रीय पुरुस्कार से नवाज़े जा चुके हैं. इंडियन सोसाइटी ऑफ सिनेमैटोग्राफर्स के संस्थापक सदस्य वेणु की एक्शन एडवेंचर फिल्म कार्बन बहुत पसंद की गयी थी और वे मणि कौल जैसे निर्देशक के पसंदीदा सिनेमेटोग्राफर माने जाते हैं. रचियम्मा की खूबसूरती उसकी 50 साल पहले लिखी गयी कहानी के आज भी मौजूं होने में है. पार्वती का अभिनय कमाल है और उन्होंने एक स्वतंत्र व्यवसाय करने वाली लड़की का जो किरदार निभाया है वो आज भी उतना ही प्रासंगिक नज़र आता है जितना पहले आता था. लोगों को पैसे देना और फिर उनसे रास्ते में ही वसूली करना और फिर सच जानते हुए उनका ब्याज छोड़ देना या फिर लोगों का उसके चरित्र को लेकर मजाक बनाना और उसका कुछ ध्यान न देना, आज तक वैसा का वैसा ही होता देखा जा सकता है. रचियम्मा की प्रेम कहानी अधूरी रह जाती है और 11 साल बाद वो अपने प्रेमी से फिर से मिलती है तब भी उसके मूल्यों में कोई अंतर नहीं आता और यही इस कहानी की जीत है. आस पास ऐसे किरदार हमें देखने को अब शायद न मिलें लेकिन अकेली काम काजी महिला के साथ इस तरह की अफवाहें और हरकतें आज भी इसी तरीके से होती नज़र आती है. समाज को आईना दिखाती ये फिल्म, बहुत अलग है और बहुत ही खूबसूरत है.

तीसरी और आखिरी फिल्म है प्रसिद्ध लेखक उन्नी की कहानी पर आधारित और जाने माने निर्देशक आशिक़ अबू द्वारा निर्देशित फिल्म ‘रानी’. बहुत प्यारी कहानी है. कॉलेज में पढ़ने वाली रानी (दर्शना राजेंद्रन) और उसके बॉयफ्रेंड (रोशन मैथ्यू) के बीच के मानसिक द्वंद्व की. बॉयफ्रेंड, रानी को किसी भी कीमत पर मना कर एक सुनसान इलाके में ले जाकर उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाना चाहता है. इसके लिए वो बातचीत में तमाम तरह के हथकंडे अपना कर रानी को उसके साथ चलने के लिए तैयार कर लेता है. फिल्म में रानी की मन की स्थिति एकदम नए किस्म की है. उसको इस बात की परवाह नहीं है कि कोई उसे अपने बॉयफ्रेंड के साथ देख लेगा. उसे इस बात से फर्क़ नहीं पड़ता कि उसका बॉयफ्रेंड कौन कौन से तरीके से उसे राज़ी करने की कोशिश कर रहा है. फिल्म का अंत बहुत मार्मिक है. सम्बन्ध बनाने के लिए तैयार रानी के सामने बॉयफ्रेंड के मन में आने वाले विचारों की रेलगाड़ी, बहुत ही अलग क़िस्म का अंत है. कहानी में जो ट्विस्ट रखा गया है वो इस कहानी की रीढ़ है और दर्शना का अभिनय इस फिल्म की आत्मा है.

कुल जमा तीनों कहानियां अपनी अपनी जगह बहुत ही प्रभावित करती हैं. कुछ अनुत्तरित प्रश्न रह जाते हैं. पहली कहानी में सावित्री अपनी मर्ज़ी से व्यापारी पुत्र से सम्बन्ध क्यों बना लेती है वो गुत्थी सुलझ नहीं पाती. कम्युनिस्ट, जाति प्रथा, सामन्तवादिता और पुलिस के अत्याचार इतने खूंखार तरीके से दिखाए गए हैं जो फिल्म के अंत से मेल नहीं खाते. वहीं दूसरी ओर, रचियम्मा इतने लम्बे समय तक अपने प्रेमी का इंतज़ार करती है और प्रेमी आखिर तक पशोपेश में ही क्यों पड़ा रहता है जब दोनों ही एक दूसरे को पसंद करते हैं. एस्टेट से प्रेमी का अचानक चले जाना भी थोड़ा खलता है. ये प्रेम कहानी अच्छी बन सकती थी लेकिन थोड़ी प्रासंगिकता की कमी नज़र आयी. तीसरी फिल्म में रानी की मासूमियत और संकल्पशक्ति के आगे पूरी फिल्म बहुत बौनी लगती है. उसके बॉयफ्रेंड की मनःस्थिति जिस तरीके से दर्शायी गयी है वो थोड़ी अजीब लगती है.

तीनों ही फिल्मों की सिनेमेटोग्राफी सुरेश राजन (सावित्री), वेणु (रचियम्मा) और शेजु खालिद (रानी) एकदम अव्वल दर्ज़े की है. हिंदी फिल्म में फिल्मों को गति देने का काम बहुत कम सिनेमेटोग्राफर कर पाते हैं. उन्हें इस एन्थोलॉजी को देख कर सीखना चाहिए.

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