13 अगस्त 2004 को नागपुर की कस्तूरबा नगर बस्ती में रहने वाला भरत कालीचरण उर्फ़ अक्कू यादव को नागपुर कोर्ट में दोपहर के 3 बजे के बाद करीब 200 से 400 औरतों ने कोर्ट में घुसकर 70 से भी ज़्यादा बार चाकू से मारा और ऐसा करने से पहले पूरे कोर्ट रूम में उन्होंने लाल मिर्च पाउडर फेंका ताकि सबकी आंखें बंद हो जाएं और कोई भी इन औरतों को देख न सके. वैसे तो औरतों ने चेहरे पर कपडा, दुपट्टे और साड़ियों के पल्लू लपेट रखे थे, फिर भी वो कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे. अक्कू पर लगातार वार करने के बाद, उन्हीं औरतों में से एक ने उसके गुप्त अंग को भी काट कर कोर्ट रूम में फेंक दिया. अक्कू की वहीं मौत हो गई.
पुलिस, कानून और कोर्ट ने कई कोशिशें की मगर किसी भी औरत को वो पूर्ण रूपेण दोषी नहीं ठहरा सके. इस हत्या को मॉब लिंचिंग समझ कर, सभी अभियुक्तों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया. ज़ी5 पर रिलीज़, निर्देशक सार्थक दासगुप्ता की फिल्म “200 हल्ला हो” इसी सत्य घटना से प्रेरित एक ऐसी कहानी है जिसे देखने के लिए दिल को कड़ा करना पड़ता है.
अक्कू यादव एक गैंगस्टर था. कस्तूरबा नगर में उसका दबदबा चलता था. इसी डर का फायदा उठा कर वो किडनेपिंग, डकैती और रेप जैसे जघन्य अपराध करने लगा था. उसका साम्राज्य 13 साल तक चला. अक्कू एक गुंडा था लेकिन डरपोक था. सब मेरे खिलाफ साज़िश कर रहे हैं ये सोच कर वो धमकी, मार पीट या दबेलदारी से लोगों को कहीं जमा होने नहीं देता था. दुकानदारों से अवैध वसूली से शुरू करने वाला अक्कू औरतों का मुंह बंद रखने के लिए उनका रेप करता था और फिर कभी कभी उनकी हत्या भी कर देता था. पुलिस से सेटिंग थी और कुछ नेताओं का हाथ था जिस वजह से अक्कू हमेशा बचा रहा. लेकिन एक दिन लोगों के सब्र का बांध टूट गया.
कस्तूरबा नगर की 40 औरतों ने एक साथ उसके खिलाफ रेप की एफआयआर लिखवाई. डर के मारे अक्कू ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया और हवालात में ऐश करता रहा. 13 अगस्त को उसकी पेशी थी जहां कस्तूरबा नगर की कुछ औरतें गवाही देने के लिए मौजूद थी लेकिन अफवाह ये भी थी की अक्कू छूट जाएगा. कोर्टरूम के बाहर अक्कू और एक गवाह के बीच गरमा गर्मी हो गयी और उस औरत ने अक्कू को चप्पल से मारा. अक्कू ने उसे बाहर निकल कर देखने की धमकी दी.
इस बात से परेशान हो कर कि इस राक्षस का आतंक कभी ख़त्म नहीं होगा और ये जेल से छूट कर फिर वही सब करेगा, इसलिए कस्तूरबा नगर बस्ती की सभी महिलाओं ने पूरे कोर्ट रूम में लाल मिर्च का पाउडर फेंका, पुलिस वालों से अक्कू को छुड़ाया और उस पर हमला बोल दिया. खैर बाद में कई महीनों तक हत्या का मुकदमा चलाया गया, कुछ गिरफ्तारियां भी हुईं लेकिन सबूतों का अभाव और हमलावरों की पहचान करने के लिए कोई न मिलने की वजह से सब औरतें छूट गयीं.
इस सत्य घटना पर आधारित कथा और पटकथा लिखी है अभिजीत दास और सौम्यजीत रॉय ने. निर्देशक सार्थक दासगुप्ता और गौरव शर्मा ने स्क्रीनप्ले और डायलॉग में उनकी सहायता की है. फिल्म में अमोल पालेकर ने एक रिटायर्ड दलित जज श्री डांगले की भूमिका अदा की है. वर्षों बाद उन्हें एक वज़नदार रोल में देख कर अच्छा लगता है और फिर ये भी याद आता है कि अमोल पालेकर खुद को अभिनेता नहीं मानते हैं और इसीलिए इतने सालों बाद, एक गंभीर भूमिका में वो पूरी फिल्म में सबसे शक्तिशाली किरदार बन कर नज़र आते हैं तो अचम्भा नहीं होता.
अमोल पालेकर की कोई छवि का न होना उन्हें कई अन्य कलाकारों से बेहतर और अलग बनाये रखता है. रिंकू राजगुरु का किरदार (आशा सुर्वे) अच्छा तो लगता है लेकिन अपनी अधिकांश फिल्मों की तरह वो डायलॉग बाज़ी करती हुई नज़र आयी हैं. उनके किरदार को थोड़ा और डेवलप करने की सम्भावना थी. रिंकू और वकील उमेश (बरुन सोबती) का अबोला रोमांस बहुत अच्छा लगता है.
अपनी दलित पृष्ठभूमि से त्रस्त रिंकू और अमोल पालेकर के बीच के संवाद असहज से और बहुत ही फ़िल्मी लगे. फिल्म का तीसरा सबसे शक्तिशाली कलाकार थे साहिल खट्टर। इनका किरदार बल्ली आधारित है अक्कू यादव के किरदार पर. जुगुप्सा की भावना जगाने में साहिल कामयाब रहे. फिल्म में उनके क्लोजअप ज़्यादा नहीं थे इसलिए चेहरे पर आते हुए भाव पकड़ना ज़रा मुश्किल था लेकिन साहिल ने बहुत बढ़िया काम किया है. उपेंद्र लिमये एक बार फिर भ्रष्ट पुलिसवाले बने थे और उनके पास कुछ नया नहीं था.
फिल्म के कुछ डायलॉग बहुत अच्छे तीखे और पैने हैं और हिंदुस्तान में दलित समाज की दुर्दशा का बखान तो करते हैं लेकिन अमोल पालेकर एक रिटायर्ड जज होने के नाते संविधान को सर्वोच्च स्थान देते हैं और कानून का पालन करते हुए, बड़े ही सहज तरीके से पुलिस की जांच पद्धति की बखिया उधेड़ देते हैं. कोर्ट रूम में भी कोई चीखती चिल्लाती दलीलें नहीं होती हैं और यह इस फिल्म की अच्छी बात है. एक छोटीसी बात जो गौर करने लायक है वो ये है कि अमोल पालेकर एक रिटायर्ड जज का लबादा छोड़ कर इस केस में महिलाओं और खासकर दलित महिलाओं के लिए वकील बन कर सामने आते हैं, तो कोर्ट का जज उनका सम्मान करते हुए विपक्षी वकील के लगातार तीन ओब्जेक्शन्स को ओवर रूल कर देता है.
कोर्ट में ऐसा ही होता है. एक जज दूसरे जज का सम्मान करता है. ये बात एक सुन्दर ऑब्जरवेशन है. आखिरी सीन थोड़ा अजीब लगा जहां कोर्ट में महिलाएं अपने आप को हत्यारा घोषित करने की होड़ में लग जाती हैं. अदालत में इस तरह के दृश्य नहीं होते हैं और यहां एक कसी हुई फिल्म में निर्देशक ने थोड़ा “मोमेंट” बनाने का काम किया है.
जी5 की अधिकांश फिल्में अधपकी नजर आती हैं, वहीं “200 हल्ला हो” काफी परिपक्व है और फालतू के फार्मूला से बचती है. फिल्म देखी जानी चाहिए. दलित महिलाओं पर अत्याचार और रेप की परिस्थितियां अब भी वैसी की वैसी ही हैं. किसी दिन जब कानून मदद करने से इनकार कर देता है तो पीड़ित, कानून अपने हाथ में ले लेता है. वैसे भी कहा गया है न्याय पर पहला हक पीड़ित का होता है, ये फिल्म इस तथ्य को सही साबित करती है.
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