FILM REVIEW: गले के इर्द गिर्द कस जाती है ‘कॉलर बॉम्ब’

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फिल्म की सफलता के लिए जरूरी है कि दर्शक उस फिल्म के किसी एक प्रमुख किरदार से नाता जोड़ लें. कभी हीरो पर होने वाला अत्याचार, कभी विलेन का अतरंगी किरदार, कभी हीरोइन की खूबसूरती या कभी किसी किरदार की फिल्म में पूरी यात्रा. वहीं, कभी-कभी ऐसी फिल्म आ जाती है, जिसके किसी भी किरदार से कोई इमोशनल रिश्ता जुड़ ही नहीं पाता. पूरी कोशिशों के बावजूद कहानी इतनी सतही लगती है कि आप फिल्म के साथ कोई तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाते. ‘कॉलर बॉम्ब’ (डिज्नी+ हॉटस्टार) एक ऐसी ही फिल्म है जिसे देखते-देखते आप हर किरदार से दूर होने लगते हैं.

अक्षय खन्ना की ही तरह जिमी शेरगिल वो कलाकार हैं जिन्हें हिंदी फिल्मों में और काम मिलना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्यवश वो कम नजर आते हैं और उनके किरदार उनके टैलेंट से मेल नहीं खाते. टेलीविजन की दुनिया से फिल्मों में आये निर्देशक ज्ञानेश जोटिंग की फिल्म ‘कॉलर बॉम्ब’ भी इसी कड़ी में शामिल हो गयी है. एक महत्वपूर्ण केस सुलझाने की वजह से पुलिस अफसर मनोज हेसी (जिमी शेरगिल) का सम्मान समारोह एक स्कूल में आयोजित किया जाता है और इसी वजह से मनोज अपने बेटे को उस प्रतिष्ठित स्कूल में दाखिल करवाने के लिए ले जाते हैं. एक सुसाइड बॉम्बर उस हॉल में घुस आता है. सभी को बंधक बना कर वो मनोज को टास्क देता है जिनको पूरा करना जरूरी है ताकि उसका कालर बॉम्ब न फटे और सभी बंधक सुरक्षित रहे. मनोज एक के बाद एक टास्क करते हैं जिसमें किसी की जान लेना शामिल है और बॉम्ब फटने से बचा लेते हैं. इसके पीछे मनोज हेसी का वही सुप्रसिद्ध केस है जिसके लिए उनकी प्रशंसा होती रहती है. कॉलर बॉम्ब एक तरह का ब्लैकमेल है, क्योंकि मनोज के हाथों उस केस में किसी का भूलवश खून हो जाता है. सारी कहानी इस खून के बदले की है.

लेखक निखिल नायर और निर्देशक ज्ञानेश ने पूरी कोशिश की है कि वो इस कहानी को एक थ्रिलर बनाएं जिसमें थोड़ा सस्पेंस हो थोड़ी चेस हो थोड़े खून हों, कुछ कमांडो कार्यवाही भी हो लेकिन जहां उनसे भयानक भूल हुई वो है उनका मुस्लिम आतंकवादी का किस्सा घुसाना. रीता नाम की मराठी टीचर को सनावर के छोटे से कस्बे में एक मुस्लिम आतंकवादी से मिलना जो सुसाइड बॉम्बर बन कर स्कूल पर कब्ज़ा कर सकता है, लोगों को मार सकता है और फ़ोन पर अजीब तरीके से डायरी में लिखी बातें पढ़ कर सुना सकता है. इस कहानी में एक मुस्लिम आतंकवादी का एंगल घुसाने की ज़रुरत शून्य थी. यहां ये किरदार शोएब अली (स्पर्श श्रीवास्तव) क्यों हैं, इसका कोई जस्टिफिकेशन नहीं है. जामतारा में अच्छा काम करने के बाद स्पर्श ने ये फिल्म क्यों की, ये समझ नहीं आया.

लेखनी कमज़ोर हो और निर्देशक ही लेखनी पर भारी पड़ता है तो कई सीन निर्देशक अपना जौहर दिखाने के लिए स्क्रिप्ट में जोड़ देता है. एक ही कहानी में कितने ट्विस्ट और कितने प्लॉट्स डाले जा सकते हैं? आप क्या हर प्लॉट के साथ न्याय कर पाएंगे? क्या दर्शक आपके दिमाग को समझ पाएंगे? ये सब बातें निर्देशक और लेखक दोनों को सोचनी पड़ती हैं. सिर्फ अपने मन के लिए अपनी ख़ुशी के लिए लिखना और फिल्म बनाने का क्या अर्थ है. इस फिल्म में सस्पेंस और थ्रिलर दोनों ही कमज़ोर पड़ गए हैं क्योंकि किरदार के पीछे का मोटिवेशन बहुत ही कमज़ोर तरीके से लिखा गया है. कमज़ोर लेखनी की एक और बानगी है, फिल्म के क्लाइमेक्स में एक लम्बा मोनोलॉग.

स्कूल में छात्र बंधक हैं और उनके माता पिता को स्कूल से मुंह काला करवा के बाहर निकाला जाता है, कारण समझ नहीं आता. एक आतंकवादी ने पूरे स्कूल पर कब्ज़ा कर लिया है तो उसका मुक़ाबला करने के लिए एकाध घंटे में ही आयआरएफ यानि रैपिड फ़ोर्स एक छोटे से केस में कैसे आ जाती है इसकी वजह समझ नहीं आती. स्कूल के बाहर एक लोकल एमएलए बिना बात के नेतागिरी करते नज़र आते हैं, क्यों? जिस रेस्टोरेंट में शोएब काम करता है उसे वो जला देता है तब भी भीड़ उस रेस्टोरेंट के मुस्लिम मालिक को मार डालना चाहती है, क्यों? सिर्फ एक आतंकवादी के लिए कमांडो ऑपरेशन जैसी ज़रुरत क्यों पड़ी? वो भी 10 कमांडों की टोली और काफी सीनियर अफसर कमांडर भास्कर चन्द्रा जो पता नहीं क्यों ही किसी इंटरनेशनल वॉर जोन जैसे इंस्ट्रक्शन फेंकते रहते हैं, गर्मी खाते रहते हैं और अपनी अहमियत ख़त्म करने में लगे रहते हैं. स्कूल में कमांडो अंदर घुस भी नहीं पाते और इस वजह से एक स्टूडेंट को जान से हाथ धोना पड़ता है. स्कूल में आया का काम करने वाली रीता मराठी गाना जाती है और सब बच्चे चुप हो कर अपनी आया के पीछे शांत हो कर बैठ जाते हैं, ऐसा कैसे होता है? ऐसी कई कमज़ोरियां हैं जिसने इस थ्रिलर का थ्रिल ही निकाल दिया है.

जिमी अच्छे हैं. सबसे अच्छा काम आशा नेगी ने किया है. टेलीविज़न पर वो बहुत ही बकवास रोल्स में नज़र आती हैं यहां उनका किरदार भी मजबूत है और उन्होंने भाषा, एक्सेंट और अदायगी तीनों सही पकड़ी है. राजश्री देशपांडे जैसी प्रतिभाशाली अभिनेत्री से काफी उम्मीदें थी, लेकिन निराशा हाथ लगी है. बाकी कलाकार साधारण हैं. निसर्ग मेहता के डायलॉग किसी किसी सीन में अच्छे लिखे हैं. संगीत अंशुमन मुख़र्जी का है जो थोड़ा कर्कश है. फिल्म में संगीत से कोई मदद नहीं मिली है. फिल्म को ओटीटी रिलीज़ मिल गयी ये बहुत बड़ी बात है. इस तरह की फिल्मों को अगर हॉल में रिलीज़ किया जाता तो पहले ही दिन दर्शकों द्वारा इसे नकार दिया जाता. नए निर्देशकों से और बेहतर काम की उम्मीद होती है. इस फिल्म ने निराश किया है.

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