
कहानी
माया मेनन (विद्या बालन) एक सेलिब्रेटेड पत्रकार हैं, जो अपनी ईमानदारी के लिए सुर्खियां बटोरती हैं। वह ऐसी शख्सियत हैं जो बड़े से बड़े अधिकारी से भी सवाल करने से नहीं हिचकिचाती हैं। फिल्म की कहानी माया और उनकी हाउसहेल्प रुखसाना (शेफाली शाह) के इर्द गिर्द घूमती है। सबकी ज़िंदगी सही सपाट चल रही होती है, जब एक रात रूखसाना की 18 वर्षीय बेटी आलिया एक हिट एंड रन घटना का शिकार बन जाती हैं। वह मौत के मुंह तक पहुंच जाती है। लेकिन रूखसाना की बेटी को जिंदगी देने के लिए माया हर संभव प्रयास करती है। इस घटना के साथ माया और रुखसाना की जिंदगी अजीबोगरीब तरीके से एक-दूसरे से उलझ जाती है। जैसे-जैसे घटना के दोषी पर से पर्दा हटने लगता है, एक के बाद एक किरदार सामने आते हैं, कई चेहरों से नकाब हटता है, कई जिंदगी बदल जाती हैं।

अभिनय
फिल्म के कलाकार इसके मजबूत पक्ष हैं। माया मेनन के किरदार में विद्या बालन ऐसे रच बस गई हैं, कि एक सेकेंड के लिए आपकी नजर उनसे नहीं हटती। अपने किरदार में सर्वश्रेष्ठ, विद्या बालन ने एक बार फिर अपने अभिनय से दिल जीत लिया है। एक प्रतिष्ठित पत्रकार के रूप में जहां वो आत्मविश्वास से भरपूर दिखती हैं, वहीं घर पहुंचते ही अपनी मां, बेटे, पति के सामने उनके हाव भाव में साफ बदलाव देखा जा सकता है। विद्या और शेफाली शाह को स्क्रीन पर साथ देखना काफी शानदार रहा है। शेफाली अपने किरदार में पूरी तरह से ईमानदार दिखती हैं। निर्देशक ने भी उनके किरदार को पूरा स्कोप दिया है। सहायक भूमिकाओं में रोहिणी हट्टंगड़ी, विधात्री बंदी, इकबाल खान, मानव कौल, सूर्या कसीभटला और शफीन पटेल प्रभावशाली हैं।

निर्देशन
तुम्हारी सुलु के बाद सुरेश त्रिवेणी एक बार फिर विद्या बालन के साथ आए हैं। लेकिन इस बार शैली अलग है। निर्देशक ने एक क्राइम ड्रामा को भावनात्मक ढ़ंग से पेश करने की कोशिश की है और वो सफल भी होते हैं। खासकर अपने किरदारों को उन्होंने इतने बेहतरीन ढ़ंग से शेप किया है कि हर किरदार से आप खुद को जुड़ा महसूस करेंगे। माया, रूखसाना से लेकर ड्राइवर, पुलिस अफसर, बिल्डर सबके पीछे एक कहानी है और वो कहानी काफी दिलचस्पी जगाती है। फिल्म रिएलिटी से काफी करीब लगती है। हर किरदार कहीं ना कहीं त्रुटिपूर्ण है। किस तरह एक घटना की वजह से ये सभी किरदार आपस में जुड़े जाते हैं, ये निर्देशक ने जबरदस्त अंदाज में दिखाया है। फिल्म में कई ट्विस्ट हैं, जो आपको चौंकाएंगे। हालांकि क्लाईमैक्स में जाकर फिल्म काफी ढ़ीली पड़ जाती है। यूं लगता है कि एकदम ऊंचाई पर ले जाते जाते काहनी आपको सीधे नीचे धकेल देती है।

तकनीकी पक्ष
सौरभ गोस्वामी की सिनेमेटोग्राफी फिल्म के सबसे मजबूत पक्ष में से है। मुंबई को उन्होंने एक किरदार की तरह कैमरे में उतारा है। व्यस्त सड़कें, तंग गलियों से होते हुए लोकल स्टेशन, ऊंची इमारतें और रात को पसरा सन्नाटा.. फिल्म की सिनेमेटोग्राफी कहानी को एक अलग स्तर पर ले जाती है। शिवकुमार की एडिटिंग जबरदस्त है, खासकर फिल्म का सेकेंड बहुत तेजी से गुजरता है। इसके अलावा, गौरव चटर्जी द्वारा दिया गया बैकग्राउंड स्कोर तारीफ के लायक है।

देंखे या ना देंखे
मजबूत स्टारकास्ट और दिलचस्प विषय के साथ ‘जलसा’ 2 घंटे 10 मिनट तक लगातार आपको बांधे रखती है। इमोशनल टच के साथ बुना गया ये क्राइम ड्रामा जरूर देख सकते हैं। फिल्मीबीट की ओर से ‘जलसा’ को 3.5 स्टार।