Krishna Sobti Jnanpith Award Gyanpeeth Award 2017 Hindi Literature Partition Is Always In Her Literature Pr | पहली कहानी से लेकर आखिरी उपन्यास तक जिन्हें सताता रहा विभाजन का दर्द

0
117
पहली कहानी से लेकर आखिरी उपन्यास तक जिन्हें सताता रहा विभाजन का दर्द



कृष्णा सोबती को जानना है तो ये जानना शायद दिलचस्पी पैदा करे कि उनकी पहली कहानी ‘सिक्का बदल गया’ विभाजन पर आधारित थी और उनका आखिरी उपन्यास भी गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान भी विभाजन की त्रासदी पर ही केंद्रित है. इसके बीच सात दशक के अंतराल में उन्होंने बहुत कुछ सार्थक रचा और गढ़ा है. इसी साल कृष्णा सोबती जी से कई मुलाकातें हुईं. एक इंटरव्यू के सिलसिले में कई बार उनके घर आना- जाना हुआ.

दरअसल, 90 साल की उम्र पार कर चुकी कृष्णा सोबती का समय मिलना मुश्किल होता है. जो स्वाभाविक भी है. डॉक्टरों के चक्कर, दवाईयों की जरूरत और जरूरी आराम के बीच उनकी दिनचर्या बीत रही है. हां, लेकिन अगर आपको समय मिल गया तो आपको वही कृष्णा सोबती मिलेंगी जो आज से बीस-पच्चीस साल पहले थीं. वैसे ही केतली में ढकी चाय, वैसी ही चाय की चुस्कियां और वैसी ही बातचीत. बीच बीच में यू-नो (You Know) का उनका तकिया कलाम.

ये ईश्वर की दुआ है कि उनकी यादें बिल्कुल दुरूस्त हैं. वो बिल्कुल चैतन्य हैं. देश के राजनीतिक हालात पर नजर रखती हैं. अपनी राय रखती हैं. अब भी पढ़ने लिखने का समय निकाल लेती हैं. हाल ही में उनका एक उपन्यास “गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान” रिलीज हुआ था. जिसका जिक्र हमने इस लेख की शुरूआत में किया. जिसकी खासियत है उसकी शैली. दरअसल ये किताब उपन्यास से ज्यादा आत्मकथा है क्योंकि इस उपन्यास में कुछ भी काल्पनिक नहीं. जो कुछ लिखा गया है वो कृष्णा सोबती का जिया हुआ है.

गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान

उपन्यास की शुरूआत में बंटवारे का जो जिक्र है वो भयावह है. कृष्णा सोबती की लिखी कुछ लाइनें ऐसी हैं- जो करंट की तरह लगती हैं. मसलन- ‘घरों को पागलखाना बना दिया सियासत ने’. 7 शब्दों के इस वाक्य के गंभीर मायने हैं.

‘दौड़ो-भागो…भागो,
छोड़ दो उन्हें जो बेबस हैं-
बूढ़े हैं, बीमार हैं,
जो दौड़ नहीं सकते. वह अब जी नहीं सकते,’
‘अब इस मोड़ से पीछे देखने का नहीं,
आगे देखने का समय है’

उपन्यास के बीच बीच में कुछ ऐसे प्रयोग हैं जो अपने आप में एक मुकम्मल कविता जैसे हैं.

ना तुम तुम हो/ ना हम हम हैं./ क्या कहा? / फिर से कहो./
राम दास/राम प्रसाद/राम प्रकाश/राम कृष्ण/राम चंद्र/राम सुहास/राम आलोक/ राम कुमार-
अब्दुल गनी/अब्दुल हमीद/ अब्दुल गफ्फार/ अब्दुल मजीद/ अब्दुल करीम/ अब्दुल कादिर/ अब्दुल रहमान/ अब्दुल शकूर
कौन है दूर/ कौन है पास/ किससे दूर किससे पास/ अल्लाह हो अकबर./ हर हर महादेव.

इस उपन्यास के बारे में कृष्णा सोबती बताती हैं- ‘यूं तो ये किताब एक उपन्यास है लेकिन इसमें मेरे जीवन का सच ही है. इसे मेरी जिंदगी का जिया हुआ एक टुकड़ा कहा जा सकता है. इस उपन्यास के केंद्र में मेरा अपना जीवन है, जब मैं 22-23 साल की थी. मैंने पाकिस्तान के गुजरात से शुरू हुए अपने सफर के हिंदुस्तान के गुजरात पहुंचने की घटनाओं को इस किताब में समेटा है. जिसकी पृष्ठभूमि में देश का बंटवारा और उसके बाद पैदा हुए हालात हैं. जिनकी भयावह सच्चाई भुलाए नहीं भूलती. इसी घटनाक्रम के बीच उपन्यास की नायिका का राजस्थान के एक राजघराने की शिशुशाला को संभालने का जिक्र है. जिसके साथ साथ कहानी आगे बढ़ती है.’

कृष्णा सोबती का रचना संसार करीब सात दशक का है. उन्होंने मित्रो-मरजानी, डार से बिछुड़ी, जिंदगीनामा, ऐ लड़की, यारों के यार, तीन पहाड़, दिलोदानिश जैसी किताबें लिखी हैं. उन्हें ‘बोल्ड’ लेखिका के तौर पर माना गया. जो समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर मजबूती से अपनी बात कहती हैं. कृष्णा सोबती को 1980 में साहित्य अकादमी और 2007 में व्यास सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है.

india pakistan partition

विभाजन का एक दृश्य

पहली कहानी के प्रकाशित होने के पीछे की कहानी

कृष्णा सोबती से मैंने उनकी पहली कहानी के प्रकाशित होने का किस्सा पूछा, तब उन्होंने बताया था- ‘उस कहानी को लेकर मेरी फिक्र ये थी कि मैंने उसमें कुछ पंजाबी भाषा के गांव के शब्द लिखे थे. मैं खुद पंजाबी पढ़ना नहीं जानती लेकिन मुझे वहां के ‘एक्सप्रेशन’ का अंदाजा था. चूंकि वो कहानी विभाजन की थी इसलिए मैंने उन शब्दों का इस्तेमाल किया था. आम तौर पर उन शब्दों का इस्तेमाल मुस्लिम लोग विदाई के वक्त किया करते थे. वात्सायन जी के पेपर की बड़ी साख थी. मेरी वो कहानी उनके पेपर में छप गई. उस वक्त उनका प्रतीक प्रकाशन हुआ करता था. हम लोग रहते भी पास-पास ही थे. एक दिन प्रतीक प्रकाशन के एक सज्जन मुझे मेरे घर के पास ही मिल गए. मैं उन्हें जानती नहीं थी. उन्होंने मुझसे पूछा कि आप कृष्णा सोबती हैं? मैंने कहा-जी हां. वो कहने लगे कि आप जानती ही होंगी कि वात्सायन जी भी पास में ही रहते हैं तो कल आप चाय पर आइए. अगले दिन मेरी कोई व्यस्तता थी तो मैंने कह दिया कि मैं कल तो नहीं आ पाऊंगी. खैर, अगले दिन मैं चाय पर उन लोगों से मिलने गई. वहां वात्सायन जी थे, प्रतीक प्रकाशन के प्राण नागपाल जी थे, बलवंत सहगल थे और भी कुछ लोग थे. उस वक्त तक साहित्य पर चर्चा करने जैसी मेरी तालीम नहीं थी, लेकिन चाय पानी का कार्यक्रम ठीक से हुआ. इसके बाद उन्होंने मुझे एक लिफाफा पकड़ाया.’

‘उस लिफाफे के भीतर एक मैगजीन थी. मैंने लिफाफा ले लिया और घर पर आकर रख दिया. मैंने सोचा कि खाना खाने के बाद जब हम लोगों के पढ़ने का वक्त होता था तभी उस किताब को खोलकर देखूंगी. रात में खाना खाने के बाद मैंने मैगजीन खोली, मेरी फिक्र इसी बात को लेकर थी कि वात्सायन जी ने उन शब्दों को रखा है या हटा दिया है. मैंने पूरी कहानी पढ़ डाली. कहानी में सभी के सभी शब्द ज्यों के त्यों थे. मुझे भरोसा नहीं हुआ. मैंने कहानी को दोबारा पढ़ा और मैंने पाया कि वात्सायन जी ने कहानी में कोई बदलाव नहीं किया था. उसके बाद ही मैंने अपने आप से कहा कि अब मुझे एक लेखक के तौर पर खुद को थोड़ी गंभीरता से लेना चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि कुछ फुटकर रचनाओं को छोड़ दिया जाए तो वो मेरी पहली कहानी थी जो बड़ी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. उससे पहले हिंदुस्तान टाइम्स की अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में मेरी कहानी ‘दादी अम्मा’ को अवॉर्ड मिला था. इसके बाद ‘सिक्का बदल गया’ कहानी के छपने को बाकयदा हमने ‘सेलिब्रेट’ किया था.’