मिमी की कहानी
मिमी की कहानी में ज़्यादा कोई खेल या ट्विस्ट नहीं है। फिल्म की कहानी वही है जो अमूमन कई फिल्मों में एक छोटे शहर में बड़े सपने देखने वाली लड़की की कहानी होती है। मिमी की कहानी भी वही है। वो मुंबई जाना चाहती हैं, मायानगरी में अपने सपनों की दुनिया बसाना चाहती हैं लेकिन जितनी महंगी वो दुनिया है उतनी ही महंगी है उन सपनों को पूरा करने की कीमत। इसके बाद वो कीमत किसी भी कीमत पर मिले, उसके लिए मिमी तैयार है। क्योंकि सपने पूरा करने के लिए हर कीमत छोटी ही होती है। मिमी के सपनों की कीमत है उसकी कोख।
फिल्म का प्लॉट
मिमी के सपनों को पूरा करने में उसकी मदद करता है भानु (पंकज त्रिपाठी)। उसकी भाषा में वो मिमी के सपनों का केयरटेकर है। भानु के भी अपने सपने हैं जो महंगे हैं और मिमी – भानु दोनों मिलकर जब टैक्सी में रेडियो पर बज रहे गाने, the whole thing is that कि भैया सबसे बड़ा रूपैया सुनकर खुश होते हैं तब ही ये फिल्म आगे आने वाली परिस्थितियों के बारे में आपको छोटी सी झलक दे देगी। क्योंकि पैसा अगर वाकई आसानी से खुशी दे सकता तो दुनिया में इतना ग़म नहीं होता।
लक्ष्मण उतेकर का निर्देशन
लक्ष्मण उतेकर को पता है कि उन्हें अपनी कहानी में क्या कहना है और यही कारण है कि मिमी कहीं भी बोझिल नहीं होती है। ये फिल्म जितनी साधारण तरीके से शुरू होती है, उतनी ही साधारण तरीके से खत्म होती है। लेकिन यही फिल्म की खास बात बनकर उभरता है। अगर कुछ कमी है तो वो है फिल्म की पटकथा में। मिमी में कुछ ऐसा नहीं है जो हमने या आपने देखा या सुना नहीं है। वहीं फिल्म की कहानी अपने समय से काफी पीछे चलती है। ये आपको आज से जोड़ने में विफल हो जाती है और यहीं पर फिल्म कहीं ना कहीं कमज़ोर पड़ जाती है।
कृति सैनन साधारण सी कहानी में फूंकती हैं जान
मिमी की कहानी बेहद सादी है ये तो हम आपको बता ही चुके हैं। लेकिन इस साधारण सी कहानी को अगर कुछ खास बनाता है तो वो है कृति सैनन का अभिनय। कृति सैनन पहले सीन से लेकर आखिरी सीन तक मिमी के सफर पर आपको इतने शानदार तरीके से लेकर आ जाती हैं कि आपका मन फिल्म से नहीं हटता। उन्हें हर एक सीन में बेहतरीन अदाकारी पेश करते हुए देखना एक अच्छा अनुभव था। ये फिल्म कृति सैनन अपने अभिनय के दम पर अंत तक मज़बूती से बिना किसी ढील के और बिना किसी बोझ को ढोए लेकर जाती हैं। इस बात के लिए थिएटर में उन्हें ज़ोरदार तालियां मिल सकती थीं। कृति के कुछ सीन फिल्म में वाकई ये बताते हैं कि उनका अभिनय परिपक्व हो चुका है।
तकनीकी पक्ष
गणेश आचार्य ने परम सुंदरी की कोरियोग्राफी के साथ कृति सैनन को बेहतरीन तरीके से फिल्म में इंट्रोड्यूस किया है। सुब्रत चक्रवर्ती और अमित रे की प्रोडक्शन डिज़ाईन फिल्म को सच्चा कलेवर देती है और शीतल शर्मा के कॉस्ट्यूम फिल्म को राजस्थान में बसाने में पूरी मदद करते हैं। मनीश प्रधान की एडिटिंग फिल्म को कहीं भी बोझिल नहीं होने देती है और इसके लिए उनकी जितनी तारीफ की जाए वो कम है। क्योंकि रोहन शंकर और लक्ष्मण उतेकर की पटकथा में बोझिल होने के काफी आसार थे। फिल्म को बोझिल ना होने देने का श्रेय रोहन शंकर के डायलॉग्स को भी जाता है। कॉमेडी की हल्की फुल्की फुहारों के साथ उन्होंने भावनाओं का घोल बिल्कुल सही मात्रा में तैयार किया है। इसलिए हल्की सी मुस्कान के साथ आप फिल्म देखते हैं और आंखों में कब नमी आती है, इसका आपको एहसास भी नहीं हो पाता।
फिल्म का म्यूज़िक
अगर संगीत की बात करें तो फिल्म का म्यूज़िक दिया है ए आर रहमान और भले ही ये एल्बम आपको अलग से सुनने में एवरेज लगे लेकिन फिल्म में ये गाने पूरी तरह छूटे हुए खाके में बेहतरीन तरीके से बैठ जाते हैं। कोई भी गाना गैर ज़रूरी नहीं लगता है। जहां परम सुंदरी के साथ कृति सैनन की एंट्री आपको फिल्म से तुरंत जोड़ देता है वहीं ए आर रहमान की आवाज़ में रिहाई आपको कहानी के साथ आसानी से जोड़ देता है लेकिन दिल जीतता है फिल्म के अंत में इस्तेमाल किया गया छोटी सी चिरैया। ये गाना जहां आपको मिमी की उधेड़बुन से झट से जोड़ देता है वहीं कैलाश खेर की आवाज़ में इसके बोल आपको भावुक कर देंगे। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूज़िक इसके एल्बम से ज़्यादा बेहतर है और इसके लिए ए आर रहमान एक बार फिर से आपका दिल जीत ले जाते हैं। फिल्म के म्यूज़िक में कुछ खास है जो आपको फिल्म से जोड़ देता है। वहीं आपको राजस्थान की मिट्टी की सौंधी सी खुश्बू इसके बैकग्राउंड म्यूज़िक में भी मिलती है।
मिमी और उनकी दोस्ती की सच्ची कहानी
एक दोस्त बनकर पंकज त्रिपाठी, मिमी में वो करते हैं जो अक्सर दोस्त कर करते हैं। मज़बूती के साथ अपना कंधा देना और अपने दोस्त को उस कंधे का सहारा लेकर उसे वापस खड़ा करने की कोशिश करना। पंकज त्रिपाठी, भानु के इस किरदार में दिल इसलिए जीत जाते हैं क्योंकि उनका ये दोस्त हमारे और आपके दोस्तों जैसा नहीं है। उनकी और मिमी की दोस्ती में दोस्ती कम और अपनापन ज़्यादा है, दूरी में भी एक नज़दीकी दिखाई देती है। एक रिश्ता जो दोस्ती से थोड़ा कम लेकिन फिर भी उतना ही मज़बूत दिखता है।
वहीं दूसरी तरफ, मिमी के साथ हर पल खड़ी दिखाई देती हैं उनकी दोस्त शमा। सईं तम्हान्कर इस किरदार को बेहद सादगी और सच्चाई से जीती हैं। कृति सैनन के साथ वो हर एक सीन में परदे पर उतनी ही चमक के साथ दिखाई देती हैं जितनी रोशनी, उनका किरदार, मिमी की ज़िंदगी में लेकर आता है। एक सच्चा दोस्त, ज़िंदगी में कितना मायने रखता है ये शमा पूरी ईमानदारी से दिखाती हैं।
सपोर्टिंग स्टारकास्ट
मनोज पाहवा और सुप्रिया पाठक फिल्म में मिमी के माता पिता के किरदार में अपना काम इतने खूबसूरत तरीके से करते हैं कि छोटे किरदार होने के बावजूद वो अपनी छाप छोड़ते हैं। मनोज पाहवा फिल्म में एक संगीतकार की भूमिका में हैं वहीं सुप्रिया पाठक हर उस मां के किरदार में जो अपनी बेटी की चिंता में घुली जाती है। लेकिन उन दोनों ही किरदारों को बेहतरीन तरीके से लिखा गया है। हालांकि ये दोनों ही किरदार सच्चे नहीं दिखते लेकिन जितनी सच्चाई से इसे मनोज पाहवा और सुप्रिया पाठक निभा जाते हैं, उनके किरदार पर विश्वास करने को जी चाहता है।
क्या करता है निराश
लक्ष्मण उतेकर की फिल्म निराश करती है तो अपनी फिलॉसफी में। फिल्म सच्चाई से कोसों दूर लगती है और जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ती है ये सच्चाई से उतनी ही दूरी बनाती हुई दिखती जाती है। फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं है जिस पर झट से भरोसा हो जाए। ना ही बिना किसी परेशानी भानु और मिमी के साथ मिलकर पैसे के लिए सरोगेसी करने के फैसले पर यकीन हो पाता है और ना ही मिमी के परिवार का और उसके समाज का बिना किसी टोका टाकी या डर के एक बिन ब्याही मां के बिन पिता के बच्चे को सर आंखों पर बैठा लेना यकीन दिला पाता है। देखा जाए तो ऐसा समाज हमारे सपनों में भी बड़ी मुश्किल से दिख पाता है।
क्या जीतता है दिल
मिमी अपने समय से काफी बाद की फिल्म है। ये फिल्म आज से पांच – छह साल पहले एक भव्य रिलीज़ का हक रखती है और अच्छे बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन का भी। आज के ज़माने में इसे देखकर फिल्म में ताज़गी कम मिलती है। लेकिन शायद यही फिल्म की खासियत है कि इतनी बड़ी कमी के बावजूद, मिमी की सच्चाई और इसके कलाकारों का मज़बूत अभिनय आपके दिल में एक छोटी सी जगह और आपके चेहरे पर एक छोटी सी मुस्कान छोड़ जाता है।