
अपने लाखों चाहने वालों की आंखें नम कर मंगलवार को ठुमरी की रानी कही जाने वाली गिरिजा देवी चली गईं. उनके निधन के साथ ही भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक युग का अंत हो गया. इस बार हम ‘रागदारी’ में गिरिजा देवी की ही बात करेंगे. आपको सुनाएंगे उस राग का किस्सा जिसने गिरिजा देवी के लोकप्रिय होने की नींव तैयार की.
बात 1947-48 के लगभग की है. जाने-माने शास्त्रीय गायक ओंकार नाथ ठाकुर ने गिरिजा देवी को सुना और जल्दी ही आकाशवाणी में रिकॉर्डिंग के लिए बुला लिया. इस रिकॉर्डिंग के साथ ही एक तरह से गिरिजा देवी की ‘प्रोफेशनल’ गायकी का सिलसिला भी शुरू हुआ था. ऐसा इसलिए क्योंकि इस रिकॉर्डिंग के लिए उन्हें 90 रुपए का पारिश्रमिक मिला था.
गिरिजा देवी पंडित ओंकारनाथ ठाकुर का बड़ा सम्मान करती थीं. पंडित जी भी उनके प्रति बहुत स्नेह का भाव रखते थे. इस रिकॉर्डिंग के 2-3 साल बाद का एक किस्सा बड़ा दिलचस्प है. 1951 में बिहार के आरा में संगीत की एक कॉन्फ्रेंस थी. गिरिजा देवी को वहां प्रस्तुति देनी थी. उस कार्यक्रम के आयोजक गिरिजा देवी के गुरु भाई लल्लन जी थे.
आरा में हर किसी को इंतजार था कि उन्हें ओंकारनाथ ठाकुर को सुनने का मौका मिलेगा. उस दौर में शास्त्रीय कार्यक्रमों का लोग इंतजार किया करते थे. असली मुसीबत तब हुई जब पंडित ओंकारनाथ ठाकुर की कार सासाराम में खराब हो गई. सुबह का वक्त था और दोपहर करीब दो बजे कार्यक्रम शुरू होना था. दोनों जगहों के बीच लगभग सौ किलोमीटर की दूरी थी. यूं तो दूरी कोई बहुत अधिक नहीं थी लेकिन उस समय में गाड़ी आसानी से मिलती नहीं थी. मजबूरन ओंकारनाथ ठाकुर को अपना कार्यक्रम रद्द करना पड़ा.
आयोजकों ने कार्यक्रम में शामिल अन्य कलाकारों से निवेदन किया कि वो ओंकारनाथ ठाकुर की जगह प्रस्तुति दे दें लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ. अंत में लल्लन जी ने गिरिजा देवी से गुजारिश की कि वो कार्यक्रम को बिगड़ने से बचा लें. अपने गुरु भाई की मुसीबत समझकर गिरिजा देवी गाने के लिए तैयार हो गईं. आयोजकों ने पंडित ओंकारनाथ को सुनने वाली भीड़ का अंदाजा लगाकर बड़ा पंडाल लगवाया था.
गिरिजा देवी ने गाना शुरू किया तो भीड़ कम ही थी, लेकिन कुछ समय बाद जब उन्होंने आंख खोली तो पंडाल भर चुका था. उस रोज गिरिजा देवी ने जिस राग के साथ अपनी गायकी शुरू की थी, वो राग था- राग देसी. उसी कार्यक्रम में बाद में उन्होंने बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए भी गाया था. जो अंत तक उनकी पसंदीदा प्रस्तुतियों में से एक रहा.
यूं तो हमारा आज का राग देसी है लेकिन गिरिजा जी को याद करते हुए हम आपको उनकी उस पसंदीदा ठुमरी को सुनाते हैं जिसका जिक्र हमने अभी किया था. बाबुल मोरा नैहर ऐसी ठुमरी है जिसे कई बड़े शास्त्रीय गायक-गायिकाओं ने गाया है. सुनिए राग भैरवी में गिरिजा देवी की गाई ये ठुमरी. इस ठुमरी में गिरिजा जी के साथ संगत पर आप विश्व विख्यात तबला वादक कुमार बोस को भी देख सकते हैं.
चलिए अब वापस लौटते हैं अपने आज के राग देसी पर. यूं तो फिल्मी संगीत में इस राग का बहुत ज्यादा इस्तेमाल नहीं हुआ है लेकिन भारतीय सिनेमा की अमर फिल्म बैजू बावरा में नौशाद साहब ने इस राग में एक गाना कंपोज किया था. गीत के बोल थे- आज गावत मन मेरो झूम के. इस गीत को गाने के लिए नौशाद साहब ने डीवी पलुस्कर और अमीर खां जैसे दिग्गज कलाकारों को लिया था. इस फिल्म का संगीत अपनी शास्त्रीयता के लिए आज भी पसंद किया जाता है. आइए आपको वो गाना सुनाते हैं.
आइए अब आपको राग देसी के शास्त्रीय पक्ष के बारे में बताते हैं. राग देसी काफी थाट का राग है. इस राग में कोमल ग और कोमल नी का प्रयोग किया जाता है. कुछ शास्त्रीय कलाकार इसमें कोमल ध का इस्तेमाल भी कभी-कभार किया करते हैं. राग देसी के आरोह में ग और ध नहीं लगते जबकि अवरोह में सातों सुर इस्तेमाल किए जाते हैं. इस राग की जाति औडव संपूर्ण है. इस राग का वादी स्वर प और संवादी रे है.
हम आपको इसी कॉलम में बता चुके हैं कि किसी भी राग में वादी और संवादी सुरों का महत्व शतरंज के खेल में बादशाह और वजीर जैसा होता है. इस राग को गाने-बजाने का समय दिन का दूसरा पहर है. इस राग का आरोह अवरोह देख लेते हैं.
आरोह- नी सा, रे म प, ध म प, सां
अवरोह- सा नी नी सां, प ध म प, रे ग सां रे नी सा
पकड़- रे म प ध म प, रे ग सा रे नी नी सा
एनसीईआरटी के बनाए गए इस वीडियो में आपको राग देसी के बारे में और जानकारी मिलेगी.
इस कॉलम में हम हमेशा किसी भी राग के हर पक्ष से आपको परिचित कराते हैं. इसी कड़ी में आपको अब सुनाते हैं इस राग को शास्त्रीय संगीत के और दिग्गज कलाकारों ने कैसे गाया बजाया है. आपको सबसे पहले सुनाते हैं पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर का गाया राग देसी. पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर जयपुर अतरौली घराने के बहुत बड़े गायक थे, उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया था.
अब आपको पद्मभूषण से सम्मानित मशहूर सितार वादक निखिल बनर्जी का राग देसी सुनाते हैं. महान कलाकार बाबा अलाउद्दीन खान के शिष्य निखिल बनर्जी मैहर घराने से ताल्लुक रखते थे. पंडित निखिल बनर्जी उस्ताद विलायत खान और पंडित रविशंकर के करीब-करीब समकालीन कलाकार थे. ये बदकिस्मती ही थी कि संगीत जगत ने उन्हें बहुत जल्दी खो दिया. उनका निधन केवल 54 साल की उम्र में हो गया था.
आज राग देसी की कहानी में इतना ही, अगले सप्ताह एक नए राग के साथ आपसे फिर मिलेंगे.