
काशी, वाराणसी यानि बनारस. इस बनारस और इसके गंगा तट की महत्ता बहुत है. किसी ने कहा कि मरते गंगाजल मिले जियते लंगड़ा आम, काशी कबहुं न छोड़िए विश्वनाथ का धाम. किसी ने कहा कि वो और किसी के नहीं, बस मां गंगा के बुलावे पर बनारस आते हैं. काशी के अस्सी घाट वाले तन्नी गुरू बहुत कुछ कहते हैं जो हम यहां कह नहीं सकते. जिस काशी के घाट को लेकर दुनिया नॉस्टैल्जिया और पवित्रता में डूबी रहती है, रैदास इसी काशी में रहे और गंगा तट पर जाने की जगह बोले ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’.
हर साल माघ पूर्णिमा पर रैदास जयंती मनाई जाती है. रैदास को मानने वाले वाले बताते हैं कि रैदास का जन्म 1398 में हुआ. हालांकि इसको लेकर काफी विवाद हैं. मध्यकालीन भारत में एक जूते गांठने वाले के परिवार में पैदा हुए एक बच्चे का जन्मदिन कौन याद रखता. बताया जाता है कि रविवार को पैदा होने के चलते वो रविदास हुए और रविदास से रैदास बन गए.
हिंदी के भक्तिकालीन कवियों में रैदास ज्ञानमार्गी हैं. जिस समय जाति और संस्कृत की श्रेष्ठता में डूबा काशी का दंभी शास्त्री, पंडा और ब्राह्मण वर्ग मंदिरों में कथित नीची जाति वालों को घुसने नहीं देता था. रैदास और कबीर जैसों ने संस्थाओं के ढांचों को तोड़कर समाज को जोड़ा.
काशी के तट पर रचना करने वाले अलग-अलग भक्तिकालीन कवियों के आराध्य अलग हैं. उनकी जातियां और पेशे अलग हैं. उनकी रचनाओं को समानान्तर रखने पर ये अंतर साफ दिखता है. मसलन कबीर के निर्गुण राम, तुलसी के परब्रह्म राम से अलग हैं. कबीर कहते हैं, दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना, मरम न कोहू जाना. वहीं तुलसी अपने राम के साथ थोड़े हठी हैं. उनकी धारा साफ है, जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही. तुलसी की भक्ति में जहां तमाम क्रांतिकारी बदलावों के बाद भी दासोअहम् वाला भाव है वहीं रैदास अपने पेशे के चलते ऐसे किसी पैकेज से दूर हैं. उनकी विद्वता में पंडित होने की न चाह है न उसका बोझ. इसीलिए रैदास ने राम को लेकर लिखा है, राम कहत सब जग भुलाना सो यह राम न होई. जा रामहि सब जग जानत भरम भूलै रे भाई.
हालांकि रैदास की विद्वता को मानने वालों ने उनको कुछ न कुछ कर जाति की श्रेष्ठता से जोड़ ही दिया. भक्तिकाल में अध्यात्म मंदिरों के गर्भगृहों से निकल कर गली मोहल्ले में आ गया था. काशी में कहीं कबीर शाम को चादर बुनने के काम के बाद चबूतरे पर बैठे हैं, किसी दूसरे मोहल्ले में रैदास अपने जूते गांठने के काम से फुर्सत पा चुके हैं. वे लोग जो मंदिर में नहीं घुस सकते, जिन्हें संस्कृत नहीं आती. रैदास उन्हें उनकी भाषा में समझाते हैं. गाकर सरल तरीके से, चोट करती हुई भाषा में. धारणाएं टूटती हैं कि रैदास भला कैसे विद्वान हो सकता है.
रैदास के कुछ समय बाद पैदा हुए भक्त कवि अनंतदास ने रैदास की परिचई में लिखा कि रैदास पिछले जन्म में ब्राह्मण थे, सत्संग सुना करते थे. मगर मांस खाते थे. इसलिए इस जन्म में नीची जाति में पैदा हुए. मगर पिछले जन्म की बातें याद रहीं. अनंतदास रैदास के लगभग समकालीन हैं. भक्तकवि हैं, तथाकथित उच्चकुल से हैं तो रैदास की विद्वता में जातिगत श्रेष्ठता ले आए.
आज हम ये कैसे भी पता नहीं कर सकते कि उन्होंने ऐसा रैदास के काम को मान्यता दिलाने के लिए किया, या जाति के दंभ में डूबे ब्राह्मणों के अहम को संतुष्ट करने के लिए. जब जुलाहे के घर में पैदा हुए कबीर विधवा ब्राह्मणी की संतान होने भर से विद्वान हो सकते हैं तो क्या रैदास पिछले जन्म में ब्राह्मण नहीं हो सकते. तुलसी ने जहां मानस में लिखा कि पूजिए विप्र शील गुण हीना, रैदास का दोहा इससे ठीक उलट है. रैदास बांभन मत पूजिए जो होवे गुन हीन. पूजिए चरन चंडाल के जो हो ज्ञान प्रवीन.
हालांकि कई विद्वान मानते हैं कि रैदास के लिखे बहुत से दोहों में कई रैदास के नाम से हैं, उनके नहीं है. क्या फर्क पड़ता है. रैदास की भाषा में, मन चंगा तो कठौती में गंगा. रैदास ने जाति को खुल कर खारिज किया, जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात, रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात.
उनके कुछ और दोहे हैं-
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा.
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा.
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै.
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै.
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं.
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि.
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा.
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा.
हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस.
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास.