Thalaivii Review Even having Kangana Ranavat is no reason for watching this one ss

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Review: जे जयललिता, भारतीय राजनीति का इतना कद्दावर नाम है कि उन पर बनी फिल्म देखना एक स्वाभाविक सी बात लगती है. बायोपिक के नाम पर भारतीय फिल्मों में और खास कर हिंदी फिल्मों में अक्सर महिमा-मंडन करती हुई आधी अधूरी से स्क्रिप्ट लिखी जाती है. पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह या वर्तमान प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी पर बनायीं गयी फिल्में देखने से ये बात तो साफ़ हो जाती है कि बायोपिक बनाना बहुत मुश्किल काम है. कहानी में क्या रखा जाए और क्या एडिट किया जाए, ये तय करना सबसे कठिन है. जयललिता की जिन्दगी का विस्तार एक ढाई घंटे की फिल्म में समेटना नामुमकिन तो है ही लेकिन बायोपिक के माध्यम से क्या सन्देश देना चाहते हैं ये भी कहानी से छूट जाता है. थलाइवी, राजनीति में एक महिला की एंट्री और अपने प्रतिद्वंदियों पर उसकी विजय की कहानी है, जो कि हम पहले देख चुके हैं और इस बार उसे देखने की एक और वजह ढूंढना मुश्किल होगा.

विद्या बालन की फिल्म ‘द डर्टी पिक्चर’ की कहानी सिल्क स्मिता की ज़िन्दगी पर आधारित थी. कैसे एक अनजान सी और अजीब सी दिखने वाली लड़की, फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाती है और पुरुषों के आधिपत्य को चुनौती देती है. फिल्म सफल थी इसलिए विद्या बालन को थलाइवी के लिए लेने की बात चल रही थी. तमिल एक्ट्रेस नयनतारा ने भी इस रोल को करने की हामिल भर दी थी. लेकिन अंततः कंगना रनौत को लिया गया. कंगना ने इस रोल के लिए खासी मेहनत भी की. खराब तबियत के लिए जयललिता स्टेरॉयड के इंजेक्शन लेती थीं और उसी वजह से उनका वजन काफी बढ़ी गया था. कंगना ने करीब 18 किलो वजन बढ़ाया. प्रसिद्ध नृत्य गुरु गायत्री रघुराम से भरतनाट्यम भी सीखा जो कि फिल्म में एक स्टेज शो के दौरान रखा गया था. जयललिता ने निजी जीवन में भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, मोहिनीअट्टम, मणिपुरी और कत्थक सीखा था.

जयललिता की जिन्दगी में सबसे महत्वपूर्ण शख्स थे भारत रत्न एमजी रामचंद्रन जो न सिर्फ उनके साथ कई फिल्मों में हीरो रहे बल्कि उनके मेंटर या मार्गदर्शक भी रहे. दोनों के संबंधों को फिल्म में बड़ी ही सुंदरता से दिखाया गया है और रिश्ते की गरिमा बरकरार रखी गयी है. गौरतलब बात ये है कि एमजीआर के किरदार अरविन्द स्वामी का चयन किया गया था. पूरी फिल्म में सबसे अच्छा किरदार भी इन्हीं का था और इन्होने अपने अभिनय से इसे नयी ऊंचाइयां दी. एमजीआर और जयललिता के बीच होने वाले संवाद रजत अरोरा (वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई) ने पूरी गंभीरता से लिखे हैं. दोनों के बीच होने वाले दो फोन कॉल्स के दृश्यों में रजत की लेखनी ने सन्नाटे को आवाज दी है. तमिलनाडु में एमजीआर की छवि एक देवता के समान थी और अरविन्द स्वामी ने अत्यंत सहजता से इस किरदार में मानवीयता के साथ उसमें चार चांद लगा दिए हैं. इस फिल्म के लिए अरविन्द स्वामी किसी पुरूस्कार के हकदार हैं.

फिल्म की कल्पना प्रोड्यूसर विष्णु वर्धन इंदूरि ने की थी जब वो एक और अभिनेता से नेता बने महानायक एनटी रामाराव के बायोपिक पर काम कर रहे थे. उन्होंने सुप्रसिद्ध और सफल निर्देशक एएल विजय से संपर्क किया. कई महीनों तक जयललिता के जीवन पर शोध करने के बाद विजय ने तेलुगु फिल्मों के सबसे सफल पटकथा लेखक विजयेंद्र प्रसाद को शामिल किया. विजयेंद्र प्रसाद ने बाहुबली, ईगा, मर्सल, मगधीरा, बजरंगी भाईजान और मणिकर्णिका जैसी कई सफल फिल्मों की पटकथा लिखी है. कई महीनों तक शोध सामग्री को एक कतार में सजा के और कई किस्सों को स्क्रिप्ट में रख कर हटाया. विजयेंद्र इस फिल्म को अपनी सबसे कठिन पटकथाओं में से एक मानते हैं. जयललिता के व्यक्तित्व में समय के साथ कई बदलाव आये, और उन्हें एक सूत्र में पिरोना और उनकी नकारात्मक छवि को फिल्म की मूल कहानी से दूर रखना सच में काफी कठिन काम था.

लेखन के नजरिये से देखा जाए तो फिल्म में डायलॉगबाज़ी क्यों रखी गयी वो समझ के बाहर था. कुछ दृश्यों में कंगना ने कमाल किया है. दिल्ली में इंदिरा गांधी के सामने राज्यसभा सांसद की हैसियत से दिए गए भाषण में उनकी घबराहट नैसर्गिक लग रही थी. छुप छुप के एमजीआर और जयललिता एक प्लेन में सफर करते हैं, वहां उन्होंने बिना कंगना राणावत हुए अपने आप को एक्सप्रेस किया है. कंगना के लिए ये फिल्म आसान रही होगी हालांकि वो खुद इस बात से इंकार करती हैं. अपने निर्देशक को पूरी फिल्म का और उनसे बेहतरीन करवा लेने का क्रेडिट भी वो विजय को ही देती हैं जबकि फिल्म में निर्देशक का कोई विशेष काम नजर नहीं आता है.

नसर को करूणानिधि के किरदार पर आधारित भूमिका दी गयी है. छोटी भूमिका है जो पहले प्रकाश राज निभाने वाले थे. उनके किरदार को थोड़ी प्राथमिकता की जरूरत थी और एमजीआर के पोलिटिकल मेंटर दक्षिण के कद्दावर नेता अन्नादुरई के किरदार की फिल्म में से अनुपस्थिति खली है. फिल्म में जयललिता के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति रखने के केस को भी हलके में लिया गया है. अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों, एमजीआर से उनकी नजदीकियों से जलने वालों, उनकी सेक्रेटरी शशिकला और उसके परिजनों, सोने के गहनों, साड़ियों, बैग्स और जूतों के कलेक्शन इत्यादि को पूरी तरह से फिल्म से दूर रखा गया है. जो अपमान उन्होंने बतौर अभिनेत्री, बतौर उभरती हुई नेत्री और फिर राजनेता के तौर पर झेला उसे फिल्म में लाया गया है लेकिन वो इतना सशक्त तरीके से नहीं दिखाया गया कि उस वजह से जयललियता के अंदर विरोध और विद्रोह की भावना जन्म ले सके.

थलाइवी एक सामान्य फिल्म है. ऐसी कई फिल्में हम देख चुके हैं. जयललिता के किरदार के पीछे जो असली रिसर्च की गयी वो शायद फिल्म में जगह नहीं पा सकी और सिर्फ फ़िल्मी डायलॉग और फ़िल्मी सीन्स को ही स्क्रिप्ट में शामिल किया गया वो भी ज़्यादा प्रभावी दृश्य नहीं बन सके. फिल्म को जयललिता पर बनी बायोग्राफी की तरह से देखना गलत होगा. साधारण फिल्म की तरह देखिये, शायद पसंद आ जाये क्योंकि लेखकों और निर्देशकों ने मूल कहानी के बजाये छोटी छोटी घटनाओं की मदद से कहानी का नैरेटिव बनाया है, और एपिसोडिक फिल्म्स देखने का अपना अलग मजा है.

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