‘The empire’ Review- मुगलों के इतिहास को फिक्शन की तरह दिखाने की कोशिश है ‘द एम्पायर’

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मुगलों का इतिहास आजकल चर्चा में रहने लगा है. एक तरफ देश में जाति आधारित जनगणना की मांग जोर पकड़ रही है और साथ ही हिन्दू-मुस्लिम विभाजन जोरों से एक आंदोलन की शक्ल लेते जा रहा है, ऐसे में डिज्नी+ हॉटस्टार की नयी वेब सीरीज “द एम्पायर” का रिलीज होना थोड़ा अपरिपक्व निर्णय लगता है. इस वेब सीरीज की आलोचना इसलिए ज्यादा हो रही है कि सभी को लग रहा है कि इसमें मुगलों को राष्ट्र निर्माताओं के रूप में दिखाया जा रहा है, जबकि असलियत ये है कि ये वेब सीरीज कई अंतर्राष्ट्र्रीय वेब सीरीज की स्टाइल से प्रभावित होकर बनाई गई है और दो विदेशी लेखकों द्वारा लिखी किताब पर आधारित है. गौरतलब बात ये है कि किताब तो फिर भी पढ़ने में अच्छी लगती है, क्योंकि कल्पना पर आधारित है, लेकिन वेब सीरीज इतनी कच्ची है कि देखते-देखते मन ऊब जाता है और आप बोरियत से बचने के तरीके ढूंढने लगते हैं. अंग्रेजी हिस्टोरिकल फिक्शन देख चुके लोगों को ये थोड़ा बचकाना प्रयास भी लग सकता हैं.

लंदन के पति-पत्नी माइकल प्रेस्टन और डायना प्रेस्टन पहले अलग अलग और फिर साथ साथ किताबें लिखने लगे. जब उन्होंने साथ किताब लिखने का निर्णय लिया तो उन्होंने एक नए छद्म नाम “अलेक्स रदरफोर्ड” के नाम से मुग़लिया सल्तनत के इतिहास पर 8 किताबें लिख दीं जिस पर डिज्नी+ हॉटस्टार पर रिलीज़ नयी वेब सीरीज “द एम्पायर” बनाई गई है. संजय लीला भंसाली और मेघना गुलज़ार की अधिकांश फिल्मों की लेखिका भवानी अय्यर और सीरीज की निर्देशिका मिताक्षरा कुमार ने मिल कर इस किताब को स्क्रीनप्ले की शक्ल में ढाला है और एएम् तुराज़ ने इसके संवाद लिखे हैं. मिताक्षरा काफी समय से बॉलीवुड में सहायक निर्देशक के तौर पर काम कर रही हैं और द एम्पायर वेब सीरीज उनके द्वारा निर्देशित पहली प्रस्तुति है. मिताक्षरा ने संजय लीला भंसाली के साथ बाजीराव मस्तानी और पद्मावत जैसी फिल्मों में काम किया है.

मुगलिया सल्तनत के उद्गम को लेकर कई तरह की भ्रांतियां रही हैं. उस समय के इतिहासकारों ने भी सुल्तान की मर्ज़ी के हिसाब से ही इतिहास रचा था. चूंकि बाबर के आगमन के बाद से ही हिंदुस्तान में मुगलों ने अलग अलग तरीकों से भारत के इतिहास में घुसने का प्रयास किया, और जब पूर्ण सत्ता कायम हो गयी तो भारत के इतिहास के साथ उनकी छेड़खानी, आधिकारिक तौर पर उनका हक़ बन गयी. मुगलों के आने से पहले के इतिहास के कई अंश अब मौजूद नहीं हैं. किताबें जला दी गयीं, जानकारों को ख़त्म कर दिया गया और सभी महत्वपूर्ण पदों पर मुगलों ने अपने आदमी बिठा दिए ताकि वो अपना काम निर्बाध रूप से चला सकें. कोई भी सत्तासीन शख्स, इतिहास को अपने अंदाज़ से देखना चाहता है और अपने महिमा मंडन के लिए वो यथासंभव प्रयास करता रहता है. इस वजह से सच और लिखित तथ्यों में फर्क होने की सम्भावना होती ही है.

मुगल सल्तनत के पहले राजा जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर के बचपन से लेकर भारत पहुंचने तक और वहां राज करने तक की कहानी, बाबर ने खुद अपनी किताब “बाबरनामा” में लिखी हैं. बाबर, खूंखार आततायी तैमूर (पिता की ओर से) और चंगेज़ खान (माता की ओर से) के खानदान का चश्मे-चिराग था. चाटुकारों ने बाबर को फिरदौस मकानी नाम से भी नवाज़ा था. आश्चर्य की बात है कि जिस प्रान्त फरगाना (उज़्बेकिस्तान) से बाबर आया था उसकी कुल जमा आबादी 3 लाख थी. भारत में उस वक़्त इब्राहिम लोधी का राज्य था. शुरूआती हमलों में बाबर को मुंह की खानी पड़ी थी लेकिन अंततः देश में छिपे गद्दारों की मदद से बाबर ने छोटी सी सेना की मदद से ही भारत पर कब्ज़ा कर लिया और शुरुआत हुई मुग़लिया सल्तनत की.

द एम्पायर में एक नहीं कई खामियां नज़र आती हैं. चूंकि लेखक द्वय अंगरेज़ हैं तो उनकी अधिकांश जानकारी उस समय की किताबों और पांडुलिपियों पर आधारित है जो की स्वाभाविक तौर पर मुगलों का प्रतिनिधित्व ही करती हैं. तथ्य या सच क्या है, इसकी पुष्टि कर पाना मुश्किल है. हालांकि स्क्रीनप्ले और डायलॉग में इस कहानी के कई पहलुओं को उभार कर सामने लाने की कोशिश की गयी है जो असफल ही रही है. डायलॉग हैं भी फ़िल्मी किस्म के. संजय लीला भंसाली की फिल्मों में जैसे राजपूत शान दिखाने के लिए किरदार बड़े बड़े डायलॉग फेंकते दिखाए जाते हैं, उनका प्रभाव यहां नज़र आता है. लेखकों को दोष कम देना चाहिए क्योंकि मूल किताब भी बड़ी ही फ़िल्मी अंदाज़ में लिखी गयी है और वैसे भी वो फिक्शन है, फैक्ट नहीं.

अभिनय में किस से प्रभावित होने की कोशिश की जा रही है ये तो पता नहीं चलता लेकिन किसी को प्रभावित करने की कोशिश ही नहीं की जा रही है ये साफ ज़ाहिर है. कुणाल कपूर अपनी प्रतिभा को जाया करते आये हैं, द एम्पायर भी उनके लिए कुछ खास कर पायेगी इसमें संदेह ही है. पहली बार उनके चेहरे पर काफी कन्फ्यूज़न देखने को मिला है. ऐसा तब होता है जब आप किरदार से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते या आपने ठीक से किरदार को समझा ही नहीं है. कुणाल के केस में दोनों बातें लगती है. कुणाल के किरदार में “गे” शेड्स की ज़रुरत थी? शुरू के कुछ एपिसोड्स में तो कुणाल ही सूत्रधार भी हैं तो देखने वालों को समझ नहीं आता कि वो फ्लैशबैक देख रहे हैं.

डीनो मोरिया में न पहले प्रतिभा थी और न ही अब आ पायी है. भंसाली के किरदार अल्लाउद्दीन खिलजी (रणवीर सिंह) से सीधे सीधे मैनरिज़्म उठा लिए हैं, बिना बात के डायलॉग में उतार चढ़ाव के साथ बोलने को अभिनय नहीं कह सकते. राजा या सेनापति या कोई भी किरदार आम जीवन में शेरोशायरी वाले अंदाज़ में या भाषण के अंदाज़ में क्यों बातें करते हैं ये समझना नामुमकिन है. शबाना आज़मी अभिनय के अनुभव की वजह से चेहरे और आंखों से अभिनय कर पाती हैं और साफ़ साफ़ लगता है कि उन्हें जान बूझ कर इस तरह का किरदार दिया गया है.

दृष्टि धामी का किरदार महत्वपूर्ण था लेकिन उन्होंने अपनी सीमित अभिनय क्षमता से इसमें नए आयाम लाने की कोशिश की है. बाबर की ज़िन्दगी में उनकी बड़ी बहन ख़ानज़दा की महती भूमिका रही है और बाबरनामा में उनका कई जगह ज़िक्र भी है. दृष्टि को थोड़ा रोल और दिया जाना चाहिए था. राहुल देव की भूमिका भी ठीक वैसी ही है जैसी वो अक्सर निभाते आये हैं. राहुल देव अच्छे अभिनेता हैं, उनका रोल छोटा है लेकिन महत्वपूर्ण है. इमाद शाह का किरदार उनके बालों की तरह ही है, उलझा हुआ. इस किरदार की ज़रुरत समझना एक पहेली है. और भी कई छोटे छोटे किरदार हैं जो आते जाते रहते हैं.

इस सीरीज की अच्छी बातों में इसकी प्रोडक्शन वैल्यू है. इसे बहुत बड़े पैमाने पर सोचा गया है. बहुत बड़े पैमाने पर दिखाया गया है. हालांकि कंप्यूटर ग्राफ़िक्स की मदद से किले, महलों और शहरों के शॉट्स बनाये गए हैं. कलर स्कीम बहुत अच्छी रखी गयी है, कई जगह ऐसा लगता है कि ‘गेम ऑफ़ थ्रोन्स” से प्रभावित हैं लेकिन मुग़ल काल को लेकर जो भ्रांतियां फैली हुई हैं उसमें शोख रंगों का बहुतायत से इस्तेमाल भी एक है. पाप, पल्टन, राख, और सत्यमेव जयते जैसी फिल्मों के सिनेमेटोग्राफर निगम बोमज़ॉन ने कैमरा वर्क बहुत बढ़िया किया है. कलाकारों को अचानक कैमरा पर पकड़ने की तकनीक वेब सीरीज के लिए तो फायदेमंद है लेकिन कमज़ोर अभिनेता पकडे जाते हैं. निगम के साथ यानिस मनोलोपुलोस ने भी कैमरा की कमान संभाली है. लंदन फिल्म स्कूल के यानिस ने इसके पहले ज़ी5 की वेब सीरीज “द फाइनल कॉल” में भी अच्छा काम किया था. निखिल अडवाणी के पुराने एडिटर सागर माणिक ने सीरीज की एडिटिंग की है, इस बार एक अन्य साथी अतानु मुख़र्जी के साथ. आवश्यकता के हिसाब से ही एडिट किया गया है. रफ़्तार में रोमांच की सख्त कमी फिर भी महसूस होती है.

इस बात की तारीफ की जानी चाहिए कि हिंदुस्तान में इस तरह की और इस स्केल की कोई वेब सीरीज बनाने का प्रयास किया गया. अलेक्स रदरफोर्ड की मुगलिया सल्तनत पर लिखी पुस्तक श्रृंखला की ये पहली ही किताब पर आधारित है, आसार हैं कि आगे की किताबों पर हुमायूं, अकबर, शाहजहां इत्यादि पर भी इस सीरीज के अगले हिस्से बनाये जायेंगे. निखिल अडवाणी को सबसे पहले लेखक मण्डली और निर्देशिका को बदलना चाहिए. लेखकों ने किताब को स्क्रीनप्ले में ढाला है लेकिन थोड़ी भी रिसर्च साथ में की होती तो ये फैक्ट और फिक्शन की लड़ाई न बनती और देखने वाले इसे एक आम वेब सीरीज की तरह देखते.

द एम्पायर देखिये. एक सामान्य कहानी की तरह देखिये. मुगलों का गौरवशाली इतिहास नहीं है. उनके साम्राज्य स्थापित करने के तरीके की कहानी है. बाबर का महिमा मंडन तो कतई नहीं है जैसे कई लोग मान रहे हैं बल्कि इसका बाबर तो बड़ा ही सामान्य लड़का है जो 14 साल की उम्र में पिता के असमय निधन पर अपनी सत्ता पाने की कोशिश करता रहता है और परिवार को बचाने के लिए उसकी भी तिलांजलि दे देता है. किसी ऐतिहासिक कहानी की तरह मत देखिये.

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