प्रसिद्ध अंग्रेजी उपन्यास लेखक हेरोल्ड रॉबिन्स ने 1952 में एक उपन्यास प्रकाशित किया था- ‘अ स्टोन फॉर डैनी फिशर’. गरीबी से जूझते एक लड़के की कहानी है जिसे बॉक्सिंग से बेइंतहा प्यार है. वहां से मूल भाव लेकर अब तक बॉक्सिंग पर बनी सभी फिल्मों, जैसे मिथुन चक्रवर्ती की बॉक्सर, धर्मेंद्र की अपने, क्लिंट ईस्टवूड निर्देशित मिलियन डॉलर बेबी, आर माधवन की साला खड़ूस से थोड़ा-थोड़ा प्रभावित होने की पूरी कोशिश की गयी लगती है. इसमें लेखक की या निर्देशक की कोई गलती नहीं है. स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म का फॉर्मेट तकरीबन एक जैसा ही होता है. राकेश मेहरा की ही ‘भाग मिल्खा भाग’ का उदहारण देखें तो उसमें यदि मिल्खा सिंह के बायोपिक होने का मामला नहीं होता तो वो फिल्म भी शायद ही इतनी मकबूल हो पाती. तूफ़ान उस फिल्म की तरह लगती है जो शायद कांस्य पदक पाने से एकाध प्वाइंट से रह जाती है.

फरहान अख्तर फिल्म में मुख्य किरदार में हैं.
राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्मों में एक अजीब सा कड़वापन दौड़ता रहता है, जाति -धर्म के नाम पर दंगे या भेदभाव का. वैक्यूम क्लीनर बेचते बेचते राकेश मेहरा ने ज़िन्दगी को बड़ी करीब से देखा है, अलग अलग लोगों को ऑब्ज़र्व किया. वहीं से उन्हें फिल्में बनाने का ख्याल आया. पहले कुछ एड फिल्म्स बनायीं तो उनके क्रिएटिव विजन को बहुत सराहा गया. काम करते करते उनकी पहुंच हुई अमिताभ बच्चन तक जिनके साथ उन्होंने बीपीएल टेलीविजन के लिए कई विज्ञापन बनाये. इसी जान पहचान के चलते राकेश ने अमिताभ को ‘अक्स’ फिल्म का आयडिया सुनाया. अमिताभ को आयडिया पसंद आया और एक बहुत ही शानदार फिल्म बनी. फिल्म चली नहीं. राकेश को फीचर फिल्म बनाने का अनुभव हो गया था तो उन्होंने कुछ साल बाद आमिर खान, सिद्धार्थ, शरमन जोशी और कुणाल कपूर के साथ बनायी- रंग दे बसंती. इस फिल्म में पहली बार हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई का मसला फिल्म में बड़े ही कडुवे तरीके से दिखाया गया. इसके बाद दिल्ली- 6 में भी ये मसला आया और भाग मिल्खा भाग में विभाजन की त्रासदी के जरिये ये मसला चला आया. तूफान की नींव में कुछ बड़े पत्थर सांप्रदायिक हैं. ये पत्थर कहानी के पैरों में चुभते हैं, कई बार गैर जरूरी लगते हैं तो कई बार उनकी अति नजर आती है. फिल्म में हीरो, मुंबई के मुस्लिम और क्राइम बहुल इलाके डोंगरी का रहने वाला अज़ीज अली उर्फ़ अज्जू भाई (फरहान अख्तर) बना है. इस से ज़्यादा पूर्वाग्रह क्या हो सकता है.
तूफ़ान में तूफानी कुछ है भी तो वो है फरहान अख्तर की किरदार की कद काठी पाने की मेहनत, बॉक्सिंग सीख कर एक प्रोफेशनल बॉक्सर बनने का उनका जूनून. फरहान ने मिल्खा सिंह के किरदार के लिए बॉडी बिल्डिंग में जितना पसीना बहाया था उस से कई गुना दम और पसीना तूफ़ान के किरदार अज़ीज़ अली बनने में लगा होगा. मिल्खा में वो दुबले थे लेकिन शरीर में मांसपेशियां में शक्ति नज़र आती थी, तूफ़ान में उन्होंने अपना वज़न बढ़ाया है, बॉडी भारी है और उस पर से मसल्स मास भी प्रोफेशनल बॉक्सर की तरह का है. इसके अलावा उनका किरदार कमज़ोर है. उन्होंने अभिनय में भी कुछ ख़ास काम नहीं किया है. इस से बेहतर अभिनय वो और फिल्मों में कर चुके हैं. फरहान से थोड़ी और उम्मीदें रहती हैं. उनकी सहजता इस फिल्म में नज़र नहीं आयी.
दूसरा प्रमुख किरदार, निजी जीवन में फरहान से राजनैतिक रूप से विपरीत विचारधारा रखने वाला परेश रावल यानि प्रभु का है. परेश, भारतीय जनता पार्टी से संसद का मार्ग पा चुके हैं. फिल्म में उनका किरदार मुस्लिमों से तकरीबन तकरीबन नफरत ही करता है. वजह निजी होती है लेकिन उसे पूरे समाज पर लागू करने की उनकी प्रवृत्ति साफ़ नज़र आती है. निजी जीवन में दो विपरीत राजनैतिक विचारधारा वाले अभिनेता, एक फिल्म में, एक निर्देशक के नेतृत्व में एक साथ काम करते हैं और अपने मतभेद को मनभेद में नहीं बदलने देते हैं. वर्तमान राजनीति से पीड़ित लोगों को ये बात फरहान और परेश से सीखनी चाहिए. परेश रावल का किरदार कोच वाले रौब के बजाये धर्म से उपजी व्यक्तिगत दुश्मनी से ज़्यादा प्रभावित नज़र आते हैं और लगभग पूरी फिल्म में उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन भी नहीं आता. परेश रावल इस रोल में भी कन्विंसिंग लगते हैं, जैसे वो अपने हर रोल में लगते हैं.
फिल्म की हीरोइन हैं अनन्या (मृणाल ठाकुर). टेलीविज़न से अपने अभिनय करियर की शुरुआत करने वाली मृणाल ठाकुर, तूफान में एक सुखद और शीतल हवा का झोंका है. चेहरे से मृणाल काफी मासूम नज़र आती हैं और अपने पिता यानि परेश रावल के अंदर भरी कड़वाहट से अछूती ही रहती हैं. उनके आने से फिल्म में थोड़ी राहत मिलती है. उनका किरदार प्रेडिक्टेबल सा है. ये तो पहले सीन में ही तय हो जाता है कि प्रेम होगा, प्रेम में थोड़ा विवाद भी होगा, फिर हीरो के मोटिवेशन की दास्ताँ भी हीरोइन को ही लिखनी होगी और रोना भी हीरोइन को ही ज़्यादा पड़ेगा. फरहान और मृणाल के बीच केमिस्ट्री नहीं हो पायी. सोनम कपूर और फरहान की जोड़ी भाग मिल्खा भाग में जंच गयी थी, संभवतः दोनों एक दूसरे को बचपन से जानते थे इसलिए दोनों में कोई असहजता नहीं दिखी. मृणाल के साथ फरहान थोड़े अजीब पेअर लगते हैं.
बाकी फिल्म में ऐसे कई तत्व हैं जिन्हें हम ‘फिल्मी’ कहते हैं. अज़ीज अली एक गुंडा है लेकिन अनाथ बच्चों के लिए उसके दिल में दया है. बॉक्सिंग चैम्प मोहम्मद अली को वो मोहम्मद अली भाई कहता है. अज़ीज़ अली के साथ उसका एक चेला भी है मुन्ना (हुसैन दलाल). सलमान खान की फिल्म सुल्तान की ही तरह, ज़िन्दगी के थपेड़ों से मात खाया हीरो, अपनी बॉडी बिल्डिंग छोड़ देता है और बेतहाशा फैल जाता है. सुल्तान की ही तरह वो अपनी बॉडी फिर बनाता है और बॉक्सिंग करने उतर जाता है. मृणाल ठाकुर के पिता बने हैं परेश रावल और उन्हें अपनी लड़की के एक आवारा से लड़के से प्यार करने की बात से नाराज़गी भी है. फरहान अख्तर शुरू में तो छुटभैये नेता और रंगदारी -वसूली वाले गुंडे बने हैं लेकिन वो नाच-गा खूब लेते हैं, एक आम हिंदी फिल्म हीरो की तरह.
शंकर-एहसान-लॉय का संगीत है और जावेद अख्तर साहब के लिखे हुए गीत हैं. दुर्भाग्यवश अच्छे बोल और अच्छी धुन होने के बावजूद, सिर्फ ओटीटी पर रिलीज़ करने की वजह से गानों को प्राथमिकता नहीं मिल पायी. तूफ़ान टाइटल ट्रैक जोशीला है लेकिन थोड़ा असर कम है. वहीँ दो और म्यूजिक डायरेक्टर्स ने भी एक एक गाना फिल्म के लिए कंपोज़ किया है. डब शर्मा का तोडून टाक, मुंबई भाषा का गाना है. अच्छा है लेकिन याद रख पाना मुश्किल है. सैमुएल -आकांक्षा का कंपोज़ किया अरिजीत सिंह का गाना भी ठीक है जबकि अच्छा बन सकता था.
सिनेमेटोग्राफी जय ओझा की है. इसके पहले भी उन्होंने एक्सेल एंटरटेनमेंट की गली बॉय और वेब सीरीज मेड इन हेवन शूट की है. इस फिल्म में उन्होंने कोई कलर स्कीम का ख़ास ख्याल रखा है ऐसा नज़र नहीं आता है. इस वजह से फिल्म कमर्शियल अंदाज़ में शूट हुई है और इसकी आर्ट कहीं नॉक आउट नज़र आती है. एडिटिंग मेघना मनचंदा सेन ने की है. कहानी को बोझल करने में इनका योगदान माना जा सकता है. फिल्म खिंचती रहती है, राउंड दर राउंड और कोई हार मानने को तैयार नहीं है. फिल्म में 20-22 मिनिट काटने की गुंजाईश तो आम दर्शक बता सकते हैं, फिल्म का नैरेटिव टाइट रखने के लिए कुछ लम्बे दृश्यों की बली चढ़ाना ज़रूरी था लेकिन वो रह गया. मेघना इस के पहले ओमकारा, कमीने, उड़ता पंजाब और सोनचिरैया जैसी कसी हुई फिल्मों की एडिटर रह चुकी हैं.
फिल्म की कथा- पटकथा की ज़िम्मेदारी अंजुम राजबली जैसे अनुभवी शख्स के हाथों में थी. प्रकाश झा की तकरीबन सभी सफल फिल्मों के पीछे अंजुम जी की स्क्रिप्ट होती थी और इसके अलावा अंजुम, स्क्रिप्ट राइटिंग सिखाते भी हैं. तूफ़ान में स्क्रिप्ट जरुरत से ज़्यादा बड़ी हो गयी ऐसा लगता है. फिल्म के डायलॉग विजय मौर्य ने लिखे हैं और गली बॉय के बाद उन्होंने फिर डोंगरी की पृष्ठभूमि देखते हुए मुम्बइया हिंदी में काफी डायलॉग लिखे हैं मगर इस बार मामला उतना प्रभावी नजर नहीं आया. कुछ डायलॉग तो अजीब लग रहे थे.
खैर, राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म होने के नाते फिल्म में एंटरटेनमेंट की कमी नहीं है लेकिन तूफ़ान को लेकर पिछले एक साल से जितने तूफ़ान उठे थे, वो उतने ही शांत निकले. तूफ़ान से पहले शांति होती है और तूफ़ान के बाद सन्नाटा, इस बार तूफ़ान ही खामोश है. फरहान अख्तर के कैरेक्टर का थोड़ा हिस्सा और मृणाल ठाकुर को भोलापन हटा कर देखें तो फिल्म बहुत सामान्य है. ऐसी फिल्म पहले भी बनी हैं और स्पोर्ट्स ड्रामा के नाम पर आगे भी बनती रहेंगी. सवाल इतना रहेगा कि तूफान में तो इज्जत कमाने के लिए एक मवाली, बॉक्सर बनता है, शायद किसी और फिल्म में कोई और वजह आएगी लेकिन कहानी का फ्लो ऐसा ही रहेगा. वीकेंड है, देख लीजिये क्योंकि ताजा ताजा रिलीज होने वाले कॉन्टेंट में और कुछ इतना अच्छा दिख नहीं रहा है.
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